कुलदीप सिंह राणा, स्वतंत्र पत्रकार
देहरादून। 2024 के लोकसभा चुनाव कों अब मात्र 3 माह का समय शेष है, लेकिन विपक्ष की तरफ से अभी तक ऐसा कोई संकेत अपने पार्टी कार्यकर्ताओ कों नहीं मिल पा रहे हैं, जिससे वह चुनाव अभियान के मुद्दों को लेकर जन संपर्क शुरू कर सके। 2023 की शुरुआत में हिमाचल व कर्नाटक चुनाव में जीत के बाद लग रहा था कि कांग्रेस अब कार्यकर्ताओं को चुनाव के एक्टिव मोड में रखेगी, लेकिन नवम्बर माह में हुए देश के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अप्रत्याशित जीत हासिल कर सबको चौंका दिया। राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ मे भारतीय जनता पार्टी को मिले अप्रत्याशित बहुमत से भाजपा कार्यकर्ताओं का जोश हाई है। हालांकि भाजपा भारत की एक मात्र ऐसी पार्टी है, जिसके कार्यकर्ता हमेशा चुनावी मोड में रहते हैं और संकेत मिलते ही रणनीतिक रूप से एक्टिव हो जाते हैं।
पांच राज्यों में हुए चुनाव से यह तो स्पस्ट हो गया है कि हिन्दी भाषी राज्यों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का झंडा अभी भी बुलंद है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और राजनीतिक विश्लेषक विधानसभा चुनावों के नतीजों को 24 के सेमीफाइनल के तौर पर देख रहे हंै। लोकसभा चुनाव को लेकर अनेक सर्वे बाजार में आ गये हंै। हर कोई अपने-अपने सर्वे के आधार पर राजनीतिक दलों की सीटों के जीत हार के आंकलन को प्रस्तुत कर रहा है।
चुनाव सर्वेक्षण संस्था सी-वोटर द्वारा कराये सर्वे में बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए गठबंधन को 295 से 335 सीटें मिल सकती हैं, वहीं विपक्षी गठबंधन को 165 से 205 सीटें मिलने का अनुमान जताया है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या विधानसभा चुनावों में आये परिणामों और सर्वेक्षणों से लोकसभा चुनाव में सीटों की सटीक भविष्यवाणी की जा सकती है, क्योंकि 2018 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने इन्हीं तीनों राज्यों में भाजपा को पटखनी देकर सरकार बनायी थी। तब विश्लेषक इसे 2019 में मोदी के समक्ष बड़ी चुनौती के रूप में स्थापित करने पर तुले हुए थे।
राजनीति अनिश्चिताओं का खेल है, यूँ ही नहीं कहा जाता है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को अपने इन्हीं राज्यों में मुँह की खानी पड़ी थी। हिमाचल और कर्नाटक में भाजपा से सत्ता छीन कर कांग्रेस ने चुनाव युद्ध में अपना जो जज्बा दिखाया था, जिसके बाद जनमत सर्वेक्षण देश की सबसे पुरानी पार्टी को तीनों उत्तरी राज्यों में भी बढ़त दिखा रहे थे। इसी बीच विपक्ष भी कांग्रेस की ‘यूपीएÓ गठबंधन के होते हुए नरेंद्र मोदी के खिलाफ ‘इंडियाÓ भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन में अपनी ताकत को एकजुट कर चुका था, लेकिन कुछ समय बाद ही 28 दलों की विपक्षी एकता को तीनों राज्यों में मिली भाजपा की जीत ने आइना दिखा दिया। वर्तमान में जब 24 के आम चुनाव को लेकर विपक्षी दलों को देखते हैं तो बहुत से ऐसे तथ्य निकल कर सामने आते हैं, जो बताते हंै अंतर्कलह, खेमेबाजी, संगठनात्मक अव्यवस्था ने दलों के भीतर से खोखला कर रखा है।
इंडिया गठबंधन के घटक दल तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल के साथ मिलकर प्रधानमंत्री पद के लिए कॉंग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े का नाम उछालकर जो कूटनीतिक चाल चली है, उसके बाद से गठबंधन के भीतर अब खुद गाँधी परिवार राजनतिक वर्चस्व के संकट से जूझता नजर आ रहा है, क्योंकि गाँधी परिवार की राजनीति ने पहले ही कांग्रेस को छिन्न-भिन्न कर छोड़ा है, ऐसा सत्ता पक्ष के दलों के नेताओं का मानना है। पार्टी के मजबूत स्तम्भ माने जाने वाले अनुभवी नेताओं के कांग्रेस छोडऩे से वह अपनी आधी वैचारिक ताकत तो पहले ही खो चुकी है। विपक्षी इंडिया गठबंधन में अभी तक संयोजक व नेतृत्व को लेकर ही एक राय नहीं बन पाई है। ऐसे में लोकसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे पर क्या विपक्षी एकता नरेंद्र मोदी के खिलाफ एकजुट रह पाएगी, इस पर संशय बरकरार है! मौजूदा हालातों को देखकर तो नहीं लगता कि लगभग 90 दिन बाद होने वाले चुनाव को लेकर विपक्ष अपनी शक्ति संगठित कर पाएगा।
चुनावी इतिहास के पन्ने पलटें तो दिसंबर 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव में चौथी जीत हासिल करने के बाद भाजपा में नरेंद्र मोदी ने केंद्र की 10 साल की यूपीए सरकार के विरुद्ध चुनावी बुगुल फूँक दिया था और लगातार 15 महीने तक राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में भारत भर में चुनावी रैलियां करके कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ माहौल तैयार करने का कार्य किया। जिसकी परिणीति यह हुई कि कांग्रेस समेत सभी यूपीए के सभी घटक दलों कों चुनाव मे मुँह की खानी पड़ी। 336 सीटों के साथ राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन ने सत्ता मे वापसी की, जिसमें 282 सीटों के साथ पहली बार भाजपा पूर्ण बहुमत हासिल करने मे सफल हुई। सयुंक्त प्रगतिशील गठबंधन 59 और कांग्रेस ने मात्र 44 सीटों पर जीत प्राप्त की। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा, 2019 के आम चुनाव मे एनडीए का यह आंकड़ा 353 सीटों पर जा पंहुचा, वहीं भाजपा ने 303 के साथ बड़ी जीत हासिल की। नेतृत्व की स्पष्टता और संगठन में चुनावों को लेकर मुख्य रणनीतिकार अमित शाह के चुनाव प्रबंधन कौशल का ही यह परिणाम है, जो भाजपा के बेहतर प्रदर्शन के सबसे प्रमुख कारकों में दिखाई देता है।
2019 के बाद मोदी सरकार द्वारा बाबरी मस्जिद विध्वंस व कश्मीर पर धारा 370 जैसे पारंपरिक चुनावी मुद्दों का निपटारा कर 2024 के धरातल पर विपक्ष के तरकश से काफी तीर कम कर दिए हैं। तीन तलाक, हलाला, समान नागरिक संहिता, नागरिकता संसोधन कानून जैसे विषयों पर विपक्षी वोट बैंक बंटा हुआ नजर आता है।
नए भारत का निर्माण, हिंदुत्व व राष्ट्रीय सुरक्षा के ताकतवर नैरेटिव के साथ नरेन्द्र मोदी अकेले ही चुनावी मैदान में विपक्षी दलों के काफिलों पर भारी पड़ते दिखते हैं।
अकेले मोदी ही हैं, जो लगातार जनता का विश्वास हासिल करने में सफल होते आये हैं। जनता में मोदी को लेकर नजरिया बेहद स्पष्ट है। स्वयं मोदी भी किसी चुनाव को क्षेत्रीय क्षत्रपों के हवाले नहीं छोड़ते हैं। वह चुनावी रैलियों में जनता से सीधा संवाद स्थापित करते हैं। मोदी सरकार की योजनाओं को लेकर कार्यकर्ताओं ने लाभार्थियों को भाजपा से जोडऩे का काम किया है।
कोविड-19 में जनता को अनाज की व्यवस्था, महामारी से सुरक्षा के लिए स्वदेशी वैक्सीन का निर्माण, रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच भारतीय छात्रों को सकुशल स्वदेश वापस लाने जैसे कार्यों से जनता का मोदी पर भरोसा बढ़ा है। जनता में भाजपा से इतर नरेंद्र मोदी को लेकर सकारात्मक दृष्टिकोण स्पष्ट दिखायी देता है। यह एक बड़ा कारण है कि 2024 में विपक्ष की जंग भाजपा से कम और नरेन्द्र मोदी से ज्यादा नजर आ रही है। उनके निशाने पर हमेशा मोदी रहते हैं, लेकिन वह लक्ष्य साधने में सहायक मुद्दों को लेकर आक्रामक नहीं हो पाती है। ऐसा नहीं है कि आम चुनावों को लेकर विपक्ष के पास मुद्दों की कमी है। महंगाई और बेरोजगारी जैसे राजनीतिक ब्रह्मास्त्र विपक्ष के पास है, लेकिन इन्हें चुनावी धनुष पर साधने वाले हाथ बेहद शक्तिहीन नजर आ रहे हंै।
उत्तराखंड में आम चुनाव में भाजपा के सामने एकमात्र कांग्रेस बड़ा दल है। प्रदेश कांग्रेस का हाल भी केंद्रीय कांग्रेस जैसा ही है। पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत में बंटे प्रदेश कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को एकजुट कर पाना युवा प्रदेश अध्यक्ष करन माहरा के लिये टेढ़ी खीर साबित हो रहा है, जिस कारण वह संगठनात्मक इकाइयों का भी गठन पूरी तरह से नहीं कर सके है। पार्टी हाईकमान द्वारा राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश चुनाव में प्रभारी नियुक्त किये जाने से उत्तराखंड कांग्रेस के कई क्षत्रप अपने कद को बढ़ा हुआ मान रहे थे, लेकिन चुनाव परिणाम ने सबके मुँह पर ताले लगा दिए है। क्षेत्रीय पार्टी उत्तराखंड क्रांति दल समय के साथ राजनीति के भंवर में इतनी उलझ गयी है कि अब वह किसी भी दल के साथ किसी भी प्रकार से सहायक या खतरा हो पाएगी, इसमें कोई संशय नहीं बचा है। प्रदेश भाजपा अपनी केंद्रीय चुनावी रणनीति पर तेजी से आगे बढ़ रही है। उसके कार्यकर्ता लगातार मोदी सरकार के कार्यों एवं योजनाओं को लेकर जनसंपर्क में जुटे हुए हैं।
उन्हें न तो नेतृत्व को लेकर संशय है और न ही मुद्दों को लेकर किसी भी प्रकार की गफ़लत। अब देखना यह है कि भाजपा नेतृत्व 2024 में 350 के नए टारगेट को लेकर क्या रणनीति अपनाती है!