जनता की सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था के पास काम की कमी!

जनता की सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था के पास काम की कमी!

दून विनर/देहरादून।
उत्तराखंड की विधानसभा में वर्ष 2022 में अपेक्षा से बहुत कम दिन सदन चला। शीतकालीन सत्र केवल दो दिनों का हुआ। पहले 29 नवंबर से 5 दिसम्बर तक सत्र की घोषणा हुई थी, परन्तु अचानक इसे दूसरे दिन ही अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया।
पूरे साल की बात करें तो वर्ष 2022 में साल भर के तीन सत्रों में कुल 8 दिन ही सदन चला। इस दौरान बजट, अनुपूरक बजट सहित कतिपय कानून बनाने यानी विधेयक पास करने का काम हुआ, प्रश्न काल चला, मंत्रीगणों ने सदस्यों द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब दिए, सदन के पटल पर प्रस्ताव आए, यानी केवल 8 दिनों में ही कई काम निबटाए गए। अभी तक भारत और उत्तराखंड में वर्ष 2020 और वर्ष 2021 में कोविड-19 का प्रकोप अधिक रहा। वर्ष 2020 में उत्तराखंड विधानसभा में सदन 12 दिन चला था और वर्ष 2021 में 11 दिन चला, परन्तु 2022 में जब कोविड का प्रकोप न्यूनतम रहा तब सदन सबसे कम चला। 2018 से 2022 तक पांच वर्षों के दौरान प्रतिवर्ष औसतन 12 दिन सदन में काम-काज हुआ।
‘उत्तराखंड विधानसभा की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियमावली 2005Ó अनुच्छेद-174 में कहा है, ” अनुच्छेद 174 के अधीन रहते हुए साधारणतया प्रत्येक वर्ष में सभा के तीन अधिवेशन अर्थात आय-व्ययक अधिवेशन, वर्षाकालीन अधिवेशन व शीतकालीन अधिवेशन और 60 दिन के उपवेशन होंगे।” किसी एक सत्र के कार्यकाल के दिनों के बारे में नियमावली में कुछ नहीं कहा गया है, जबकि यह स्पष्ट किया गया है कि दो लगातार सत्रों के बीच का अंतर छह माह से अधिक नहीं होना चाहिए, परंतु नियमावली में साफ  कहा है कि विधानसभा सत्रों में सालभर में 60 दिन सदन में काम-काज होगा। साल में कुल 8 दिन सदन चलने का मतलब है कि निर्धारित समय का यह केवल 13 प्रतिशत के करीब है, जो बहुत ही कम है। इसके बाद एक सवाल अवश्य उठा है कि प्रदेश की अनुमानित 1२० लाख जनता के जीवन की अधिकतर उम्मीदों, आकांक्षाओं, सपनों, और समाज रचना की प्रतिबिम्ब एवं लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में प्रदेश के सर्वोच्च संस्थान विधानसभा को जनगण की आवाज बनाए रखने के लिए हमारे चुने गए जनप्रतिनिधि वाकई गंभीर हैं? दो दिन के शीतकालीन सत्र में 13 विधेयक पास हुए।
संसदीय कार्यमंत्री द्वारा एक-एक कर विधेयकों को पारित कराने का प्रस्ताव रखा गया, जिन्हें सदन ने ध्वनिमत से पारित किया। इनमें महिलाओं को राजकीय सेवा में 30 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण को विधिवत लागू करने के लिए उत्तराखंड लोक सेवा (महिलाओं के लिए क्षैतिज आरक्षण) विधेयक और राज्य में जबरन धर्मांतरण पर सख्ती से अंकुश लगाने के लिए उत्तराखंड धर्म स्वतंत्रता (संशोधन) विधेयक भी शामिल हैं। कुल 13 विधेयक बिना किसी खास चर्चा के करीब सवा घंटे में पास हो गए और दो विधेयक वापस लौट गए। इस तरह से प्रत्येक विधेयक पर चर्चा के लिए करीब पांच-छह मिनट का समय मिला। इससे यह सवाल उठता है कि इन विधेयकों की कितनी जांच पड़ताल की गई।
जब विधायकगण चंद मिनटों में ही किसी विधेयक को पारित करने की इच्छा रखते हैं तो उस विधेयक की कितनी समीक्षा हो पाएगी। संसद हो या विधानसभा, उनमें विधान के निर्माण की प्रक्रिया के दौरान सदन में प्रस्तुत किए गए विधेयकों पर बहस या चर्चा बहुत आवश्यक है। जरूरत पडऩे पर विधेयक को संबंधित कमेटी के पास भी भेजा जा सकता है, जो उसका गंभीरतापूर्वक विस्तार में अध्ययन करती है और उस पर सभा को अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करती है। वर्ष 2021 में उत्तराखंड विधानसभा में पारित किसी भी विधेयक को कमेटी के पास नहीं भेजा गया। उत्तराखंड ही नहीं कई अन्य राज्यों की तस्वीर भी यही है। वर्ष 2021 के दौरान 44 प्रतिशत राज्यों ने विधेयक को पेश होने के दिन या उसके अगले दिन पारित किया था। गुजरात विधानसभा में जनवरी 2018 और सितम्बर 2022 के मध्य, एप्रोप्रिएशन बिल के अलावा 92 विधेयक पेश किए गए और इनमें से 91 विधेयक ऐसे हैं, जिन्हें उसी दिन पारित किया गया, जिस दिन पेश किया गया। गोवा विधानसभा में 2022 के मानसून सत्र में दो दिनों के अंतर्गत 28 विधेयक पारित किए गए। दो दिनों में 28 विधेयकों पर चर्चा भी की जानी थी। साथ ही अन्य आवश्यक विषयों पर चर्चा और जरूरत पड़ी तो मत विभाजन भी होना था। ऐसे में विधेयकों पर सदस्यगण कितनी चर्चा कर पाए होंगे, इसका अंदाजा सहज लग जाता है। यह भी एक तथ्य है कि वर्ष 2021 में राज्यों में विधानसभा में कमेटियों के पास भी केवल कुल विधेयकों के दसवें हिस्से के बराबर ही विधेयक भेजे गए। लोकसभा में भी सदन में विधेयकों पर चर्चा के लिए दिए गए समय में कमी आई है। लोकसभा में पेश होने वाले विधेयकों को विस्तृत समीक्षा के लिए संबंधित कमेटी के पास भेजने का एक आंकड़ा कहता है कि 14वीं लोकसभा में ऐसे 60 प्रतिशत, 15 वीं लोकसभा में 71 प्रतिशत और 16वीं लोकसभा में 27 प्रतिशत विधेयकों को संबंधित कमेटी के पास भेजा गया। यह तस्वीर कहीं से भी संतोषजनक नहीं है। इसके पीछे की दो वजहें हो सकती हैं। एक तो माननीय पक्ष-विपक्ष के सदस्यगण विधेयकों के मसौदे के बारे में अच्छी जानकारी हासिल नहीं करते और इसलिए वे चर्चा में रुचि न लेकर जल्दी से जल्दी विधेयक को पास करना चाहते हैं या फिर सरकारों के पास मौजूद जबर्दस्त बहुमत की वजह से विपक्ष की परवाह नहीं कर केवल सत्तापक्ष के ही दम पर विधेयकों को पास करना सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा बनने लगा है। वजहें जो भी हों, यह स्थिति जनतंत्र की मजबूती के लिए और समाज को जनतांत्रिक तौर पर अधिक समावेशी बनाने की दिशा में निराशा पैदा करने वाली हैं। इस दिशा मेंं वक्त पर चेतने की जरूरत है।
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