देहरादून। अलग राज्य बनने के बाद अब उत्तराखंड पांचवें विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा है, लेकिन इस बार हर किसी को माहौल पिछले चार चुनावों की अपेक्षा कुछ हटकर महसूस हो रहा है। भाजपा फिर सत्ता में वापसी के लिए 60 से अधिक सीटों का लक्ष्य तय कर मैदान में उतरी है, तो उसके लिए अपना ही पुराना प्रदर्शन कसौटी बन गया है। इस पर खुद को खरा साबित करना भाजपा के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं। उधर, कांग्रेस की उम्मीद हर चुनाव में सत्ता बदलने के मिथक पर टिकी हुई है। पिछली बार के अत्यंत कमजोर प्रदर्शन से उबरकर बहुमत के जादुई आंकड़े तक पहुंचने के लिए कांग्रेस हर पैंतरा आजमा रही है। यह पहला अवसर है जब चुनाव कोरोना संक्रमण के साए तले हो रहे हैं, जिसका असर राजनीतिक दलों की गतिविधियों से लेकर प्रशासनिक मशीनरी और मतदान प्रक्रिया के तौर-तरीकों पर नजर आना तय है।
उत्तराखंड में चौथे विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अप्रत्याशित प्रदर्शन करते हुए 70 में से 57 सीटों पर जीत दर्ज करने में सफलता पाई। यह पहला अवसर था, जब किसी दल को राज्य गठन के बाद हुए चुनावों में इतना बड़ा जनादेश मिला। नौ नवंबर 2000 को जब उत्तराखंड का गठन हुआ, तब पहली अंतरिम विधानसभा में भाजपा का बहुमत होने के कारण उसे ही सरकार बनाने का मौका मिला। अलग राज्य निर्माण के श्रेय पर काबिज होने के बावजूद भाजपा वर्ष 2002 के पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के हाथों सत्ता गंवा बैठी। तब कांग्रेस को मिली 36 सीटें और भाजपा 19 पर अटक गई। यानी कांग्रेस को बस मामूली बहुमत ही मिल पाया। हालांकि तब उसने बाहर से भी समर्थन लिया। वर्ष 2007 के दूसरे विधानसभा चुनाव में भाजपा के हिस्से आई 34 सीटें। तब भाजपा ने उत्तराखंड क्रांति दल व निर्दलीयों के समर्थन से सरकार बनाई। इस चुनाव में कांग्रेस को 21 सीटें हासिल हुईं। वर्ष 2012 में हुए तीसरे विधानसभा चुनाव में कांटे की टक्कर देखने को मिली। भाजपा को 31 सीटों पर जीत मिली, लेकिन कांग्रेस 32 सीटें हासिल कर सरकार बनाने की दावेदार बन गई। बहुमत न मिल पाने के बावजूद कांग्रेस ने तब बसपा व उक्रांद विधायकों के समर्थन से सरकार बनाई। साफ है कि पहले तीन चुनाव में केवल एक ही बार किसी दल को बहुमत मिला, लेकिन वह भी केवल एक सीट का। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव नमो मैजिक में हुए और परिणाम पर इसका पूरा असर दिखा। भाजपा ने 57 सीटों पर जीत दर्ज की और कांग्रेस 11 पर सिमट गई। यह पहली बार हुआ कि बहुमत पाने वाले दल को तीन-चौथाई से अधिक सीटों पर सफलता मिली। दिलचस्प बात यह कि अब भाजपा के समक्ष आने वाले विधानसभा चुनाव में अपने इसी प्रदर्शन की पुनरावृत्ति की अहम चुनौती है।
भाजपा को भारी-भरकम बहुमत मिलने के बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत ने नौवें मुख्यमंत्री के रूप में 18 मार्च 2017 को शपथ ली। उनके साथ नौ अन्य विधायकों को मंत्री पद की शपथ दिलाई गई। मार्च 2021 में जब त्रिवेंद्र अपने कार्यकाल के चार साल पूर्ण होने के अवसर पर राज्यव्यापी समारोह की तैयारी में जुटे थे, अचानक उन्हें पद से हटना पड़ा। भाजपा नेतृत्व का यह निर्णय कितना अप्रत्याशित था, यह इस बात से समझा जा सकता है कि जब राज्य में इतना बड़ा राजनीतिक बदलाव होने जा रहा था, उस वक्त मुख्यमंत्री ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण में विधानसभा के बजट सत्र में व्यस्त थे। त्रिवेंद्र को चार साल के कार्यकाल की अवधि पूर्ण होने से ठीक नौ दिन पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी। इसके बाद त्रिवेंद्र के उत्तराधिकारी के रूप में पौड़ी गढ़वाल लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व कर रहे तीरथ सिंह रावत को राज्य का 10वां मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला। तीरथ को छह महीने के भीतर विधानसभा का सदस्य बनना था, मगर अचानक उन्हें भी चार महीने से पहले ही मुख्यमंत्री पद से विदा होना पड़ा।
तब कहा गया कि कुछ संवैधानिक अड़चन के कारण उन्होंने इस्तीफा दिया, लेकिन राजनीतिक गलियारों में भाजपा नेतृत्व के इस फैसले को लेकर कई तरह की चर्चाएं रही। तीरथ के बाद राज्य की चौथी निर्वाचित सरकार का नेतृत्व तीसरे मुख्यमंत्री के रूप में पुष्कर सिंह धामी को सौंपा गया। खटीमा विधानसभा क्षेत्र से दूसरी बार के विधायक धामी ने गत चार जुलाई को राज्य के अब तक के सबसे युवा मुख्यमंत्री के रूप में पद संभाला। धामी कुल मिलाकर राज्य के 11वें मुख्यमंत्री हैं। इससे पहले राज्य की दूसरी निर्वाचित विधानसभा के दौरान ऐसा हुआ था, जब पांच साल की अवधि में दो-दो बार सरकार में नेतृत्व परिवर्तन हुआ। तब भुवन चंद्र खंडूड़ी के बाद रमेश पोखरियाल निशंक मुख्यमंत्री बने थे। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव से छह महीने पहले फिर नेतृत्व में बदलाव कर भुवन चंद्र खंडूड़ी को सरकार की कमान दोबारा सौंपी गई थी।
युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उन्हें विधानसभा चुनाव में पार्टी के पिछले प्रदर्शन से आगे बढ़ते हुए भाजपा की सत्ता में वापसी सुनिश्चित करनी है। धामी बतौर मुख्यमंत्री छह महीने का कार्यकाल पूर्ण कर चुके हैं और इस अवधि में उन्होंने पार्टी की उन सभी अपेक्षाओं को पूरा करने की कोशिश की, जिसके लिए उन्हें यह बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से लेकर भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा जिस तरह कई मौकों पर खुलकर सार्वजनिक मंचों से धामी की सराहना करते रहे हैं, उससे इसकी पुष्टि भी होती है। दरअसल मुख्यमंत्री के रूप में छोटे से कार्यकाल में उन्हें न केवल स्वयं को साबित करना है, बल्कि चुनौतियों की डगर भी पार करनी है। पार्टी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि के साथ चुनाव मैदान में उतर रही है लेकिन राज्य में चेहरा तो मुख्यमंत्री का ही होगा। अगर कहा जाए कि चुनाव में धामी के राजनीतिक व रणनीतिक कौशल की परीक्षा होगी, तो गलत नहीं होगा। जहां तक छह महीने के कार्यकाल का सवाल है, धामी ने तमाम मोर्चों पर अपना दम दिखाया है। विशेष रूप से नौकरशाही पर नियंत्रण, देवस्थानम बोर्ड को समाप्त करने का निर्णय, गढ़वाल और कुमाऊं मंडलों के बीच संतुलन साधकर सर्वांगीण विकास का खाका तैयार कर इसे धरातल पर आकार देने के मामले में धामी अपनी भूमिका में सफल रहे हैं।