दून विनर /संवाददाता
इस बार विधानसभा चुनाव में उक्रांद ने 49 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए हैं, परन्तु पार्टी के केन्द्रीय अध्यक्ष काशी सिंह ऐरी चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। उनका कहना है कि यूकेडी के पास न धनबल है और न बाहुबल। ऐरी कहते हैं कि चुनावों में आज जिस पैमाने पर पैसा और मसल पावर का इस्तेमाल होने लगा है वह योग्य किन्तु साधारण आर्थिक स्थिति वाले उम्मीदवार के लिए हतोत्साहित करने वाला है। वे कहते हैं कि वे स्वयं चुनाव नहीं लड़ रहे हैं वरन उनका काम पार्टी प्रत्याशियों की मदद करना है। 1985 के बाद पहला विधानसभा चुनाव है जब ऐरी चुनाव मैदान से बाहर हैं।
25 जुलाई सन् 1979 को कुमाऊं विवि के पूर्व उपकुलपति डॉ. डीडी पंत, विपिन चन्द्र त्रिपाठी और इन्द्रमणि बडोनी के साथ उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिए आंदोलन शुरू करने के उद्देश्य से यूकेडी की स्थापना करने वाले काशी सिंह ऐरी ने डीएसबी कालेज नैनीताल में छात्र नेता के तौर पर राजनीति के रास्ते पर चलना शुरू किया। कुमाऊं विवि से पीजी करने के बाद उन्होंने लखनऊ विवि से एलएलबी पास की। उत्तर प्रदेश में रहते हुए ऐरी 1985, 1989 और 1993 में तीन बार एमएलए चुने गए। उत्तराखंड गठन के बाद पहले विधानसभा चुनाव में वे कनालीछीना से विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए। वर्ष 1989 में ऐरी यूकेडी से अल्मोड़ा लोकसभा सीट पर चुनाव लड़े जहां उन्हें 138902 वोट मिले। वे कांग्रेस प्रत्याशी हरीश रावत से मात्र 10701 वोट के अंतर से चुनाव हार गए। इस चुनाव में करीब 35 हजार मतपत्रों को अवैध घोषित किया गया था जिसकी वजह मतपत्रों के दोनों ओर स्याही फैलना बताया गया।
काशी सिंह ऐरी को 2007 में कनालीछीना, 2012 में धारचुला और 2017 में डीडीहाट सीटों पर लगातार तीन चुनावों में हार मिली। लाजमी है उनके मनोबल पर इसका असर हुआ है। वे पहली बार 1993 में यूकेडी के अध्यक्ष बने और उन्होंनेलखनऊ में पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं को बड़ी कुशलता से उत्तर प्रदेश और देश की जनता के सामने रखा। उत्तर प्रदेश विधानसभा में उन्हें तेज तर्रार जनप्रतिनिधि माना जाता था। यूकेडी में ऐरी और उनके साथियों ने गढवाल और कुमाऊं में कई स्थानों पर नुक्कड़ सभा और बैठकों द्वारा जनमत को उत्तराखंड राज्य के पक्ष में तैयार करने का काम किया। नए राज्य में वर्ष 2002 के पहले विधानसभा चुनाव में यूकेडी को 4 सीटों पर जीत मिली और तिवारी सरकार में यूकेडी ने विपक्ष में बैठने का फैसला लिया। आंदोलन के दौरान कई बातों में वाम पक्ष की ओर झुकाव रखने वाला दल 2007 के चुनावों के बाद दक्षिण पंथ की झंडाबरदार भाजपा के साथ सत्ता में बैठा जहां से उसके राजनैतिक विचलन का ग्राफ बक्राकार होता गया। उस दौरान सरकार से समर्थन वापस लेने पर यूकेडी के दो विधायकों ने जिनमें दिवाकर भट्ट कैबिनेट मंत्री भी थे, सरकार के साथ ही रहना मंजूर किया जिसकी वजह से दल में फिर जबर्दस्त बिखराव हुआ और 2012 के चुनावों के बाद यूकेडी के एकमात्र विधायक ने सरकार गठन में कांग्रेस का समर्थन कर सरकार में मंत्री पद पाया। पहले विधानसभा चुनाव में 4 सीटें और 5.49 फीसदी मत हासिल कर अगले चुनाव में सत्ता की दावेदारी की उम्मीद कर रहा दल 2017 के चुनाव आते-आते 54 सीटों पर लड़ने के बावजूद एक भी प्रत्याशी जिता नहीं सका, यहां तक कि उसका वोट शेयर भी एक फीसदीसे नीचे पहुंच गयां।
प्रदेश में इस वक्त चुनावों में तीसरी धारा को मजबूत करने के बजाय यूकेडी के अध्यक्ष सहित बहुत से अनुभवी नेताओं के चुनावी मैदान से किनारा करने के बाद उत्तराखंड अांंदोलन को लंबे समय तक लीड करने वाले क्षेत्रीय दल को राजनैतिक विकल्प के तौर पर देख रहे लोगों को सोचने पर विवश कर दिया है।