उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में तकरीबन खत्म हो चुकी सेब की खेती एक बार फिर जीवित होने लगी है। सेब उत्पादन के लिए मौसम भी सहायक बनता जा रहा है। इस बार अच्छी बर्फबारी के कारण इसका असर पैदावार पर भी देखने के लिए मिलेगा। सेब उत्पादक क्षेत्रों में फिर से सेब उत्पादन के कीर्तिमान बन सकते हैं। एक बार फिर धारचूला और मुनस्यारी के सेब उत्पादक क्षेत्र अपनी पहचान बनाने की तरफ उन्मुख हैं। गुंजी में आइटीबीपी ने भी सेब का बागान तैयार किया है।आज से चार दशक पूर्व तक मुनस्यारी और धारचूला के चौदास क्षेत्र में सेब का व्यापक उत्पादन होता था। मुनस्यारी के बौना गांव के सेब ने तो सेब के मानक तक बदल दिए थे। वर्ष 1980 में मुंबई में हुई सेब प्रदर्शनी में जब बौना गांव का सेब पहुंंचा तो सभी चौंक गए थे और बौना के सेब ने सेब के आकार के मानक बदल दिए थे । तब सेब उत्पादक क्षेत्रों तक सड़क की कोई व्यवस्था नहीं थी। सेब गांवों में ही सड़ जाता था। ग्रामीणों ने सेब उत्पादन बंद कर दिया।
बीते दशकों में एक बार फिर प्रोत्साहन पाकर युवा सेब उत्पादन के लिए आगे आए। उच्च हिमालयी क्षेत्रों से लेकर उच्च मध्य हिमालय तक सेब के पौध रोपे गए। वर्तमान में तो धारचूला के उच्च हिमालयी व्यास घाटी में सेब का अच्छा खासा उत्पादन हो रहा है। ग्यारह हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित गुंजी में आइटीबीपी तक ने सेब का बागान बनाया है। व्यास घाटी के ग्रामीण भी सेब का उत्पादन कर रहे हैं।मुनस्यारी में भी सेब उत्पादन होने लगा है। बौना, तौमिक , गोल्फा, मुनस्यारी, भटक्यूड़ा सहित कई गांवों में सेब उत्पादन होने लगा है। इस बीच सेब उत्पादन के लिए जलवायु भी उपयुक्त होने लगी है। सेब उत्पादन के लिए 18 सौ घंटे चिलिंग प्वाइंट की आवश्यकता होती है। यह मानक बर्फबारी से ही पूरे होते हैं। इन क्षेत्रों में सेब के लिए चिलिंग प्वाइंट मिल रहा है।भटक्यूड़ा गांव निवासी सेब उत्पादक युवा लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि बीते वर्ष सेब का अच्छा उत्पादन हुआ। उन्होंने गांव में ही सौ रुपए किलो सेब बेचे । उनका कहना है कि आने वाले दो तीन वर्षों में क्षेत्र में सेब का व्यापक उत्पादन होने के आसार हैं। सरकार यदि बाजार उपलब्ध कराए तो बौना के सेब के पुराने दिन वापस लौटेंगे । सेब इस क्षेत्र के गांवो की आर्थिकी को बदल कर रख देगा।