देहरादून। उत्तराखंड के लिए रविवार 24 दिसंबर 2023 का दिन ऐतिहासिक रहा। मूल निवास 1950 और सशक्त भू-कानून की मांग को लेकर राजधानी की सड़कों पर ऐसा जनसैलाब उमड़ा की सड़कें छोटी पड़ गईं। हर तरफ प्रदेश के कोने-कोने से पहुंचे लोगों का हुजूम था और जुबां पर एक ही नारा था, ‘मूल निवास-मूल निवास’। यह भीड़ किसी राजनीतिक दल की जुटाई हुई नहीं थी। हजारों की संख्या में पहुंचे लोगों में तमाम संगठन, राजनीतिक व सामाजिक दल पीछे छिप गए थे और आंदोलन का एक ही चेहरा सामने था, ‘जनांदोलन’। महारैली की एकजुटता बता रही थी कि यह भावनाओं का आंदोलन है, यह जन आकांक्षाओं का आंदोलन है, यह प्रदेश की बहुसंख्य जनता के स्वामिभान और हितों की रक्षा का आंदोलन है, यह प्रदेश के संसाधनों की चिंता का आंदोलन है।
मूल निवास स्वाभिमान महारैली में शामिल हुए प्रदेशभर के लोग विभिन्न संगठनों के बैनर तले सुबह 10 बजे देहरादून के परेड ग्राउंड में एकत्रित हुए।
मूल निवास स्वाभिमान महारैली के लिए भले ही भू कानून समन्वय संघर्ष समिति, प्रदेश की संस्कृति के ध्वजवाहक लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी, अखिल भारतीय समानता मंच, राष्ट्रवादी रीजनल पार्टी, उत्तराखंड क्रांति दल, विभिन्न आंदोलनकारी, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक दलों, युवा संगठनों ने आह्वान किया था, लेकिन परेड ग्राउंड में सभी एकाकार हो गए। यहां से हुजूम रैली की शक्ल में कचहरी परिसर स्थित शहीद स्मारक पहुंचा। इस दौरान महारैली ने ढोल-दमाऊ, डौंर आदि के माध्यम से उत्तराखंड और उत्तराखंडियत को जागृत करने वाले जनगीत गए। सरकार को भी जगाने का काम किया गया और अपने अधिकारों की मांग की आवाज बुलंद की।
साथ ही शहीद समारक पर भी तमाम वक्ताओं ने कहा कि क्यों मूल निवास 1950 और सशक्त भूकानून की जरूरत है। साल के अंतिम माह और अंतिम दिनों में महारैली के माध्यम से जो आवाज उठी है, उसकी गूंज आने वाले वर्ष में और तेज हो सकती है। हालांकि, यह सब सरकार के रुख पर निर्भर करेगा। इतना जरूर है कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी जनभावनाओं की आवाज और उसके पीछे के मर्म को अच्छी तरह समझते हैं। यही कारण है कि महारैली से पहले ही सरकार ने जन भावना के साथ खड़े होने के संकेत भी दे डाले हैं। भूकानून समिति की रिपोर्ट के अध्ययन के साथ ही मूल निवास प्रमाण पत्र के मानक निर्धारित करने के लिए समिति का गठन किया जा चुका है। परिणाम क्या होंगे यह अभी कहना मुश्किल है, लेकिन दून में उमड़ा यह हुजूम बताने के लिए काफी है कि यह मुद्दा पूरी तरह भावनात्मक और जनआकांक्षाओं से जुड़ गया है।
दून में आयोजित दो बड़ी रैलियों के मद्देनजर एसएसपी अजय सिंह ने दी पुलिस फोर्स को ब्रीफिंग
दून में मूल निवास स्वाभिमान महारैली के साथ ही मोदी है ना रैली भी थी। दोनों रैलियों में हजारों की संख्या में हुजूम उमड़ा था। दोनों ही रैली का प्रबंध करना और उसे शांतिपूर्वक संपन्न कराना किसी चुनौती से कम नहीं था। एसएसपी अजय सिंह के नेतृत्व में पुलिस ने इस चुनौती को स्वीकार किया। स्वयं एसएसपी अजय सिंह ने पूरी फोर्स की ब्रीफ किया। निर्देश यही था कि दोनों रैली किसी भी कीमत पर शांति के माहौल में संपन्न कराई जानी है। हुआ भी ऐसा ही एसएसपी समेत तमाम पुलिस अधिकारी स्वयं निगरानी में रहे। जिसका परिणाम यह हुआ कि रैली बेहतर ढंग से संपन्न हो गईं।
लंबे समय से मूल निवास और भू-कानून की मांग, इस बार आंदोलन तेज
प्रदेश की जनता मूल निवास और भूकानून पर इस बार आर या पार की लड़ाई लड़ने के मूड में दिख रही है। यह मांग है तो पुरानी, लेकिन इस बार आंदोलन में सभी वर्गों की एकजुटता दिख रही है। उत्तराखंड में राज्य स्थापना के बाद से ही हिमाचल की तर्ज पर सशक्त भू कानून लागू की मांग उठने लगी थी। जिसमें सबसे पहले वर्ष 2002 में सरकार की तरफ से प्रावधान किया गया कि राज्य के भीतर अन्य राज्य के लोग सिर्फ 500 वर्ग मीटर की जमीन ही खरीद सकते हैं।इस प्रावधान में वर्ष 2007 में एक संशोधन कर दिया गया और 500 वर्ग मीटर की जगह 250 वर्ग मीटर की जमीन खरीदने का मानक रखा गया। 06 अक्टूबर 2018 को भाजपा की तत्कालीन सरकार ने संशोधन करते हुए नया अध्यादेश प्रदेश में लाने का काम किया। उसमें उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश और भूमि सुधार अधिनियम 1950 में संशोधन करके दो और धाराएं जोड़ी गई। जिसमें धारा 143 और धारा 154 के तहत पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को ही समाप्त कर दिया गया। यानी राज्य के भीतर बाहरी लोग जितनी चाहे जमीन खरीद सकते हैं। राज्य सरकार की मंशा थी की इस नियम में संशोधन करने के बाद राज्य में निवेश और उद्योग को बढ़ावा मिलेगा, लेकिन अब सरकार के इस फैसले का विरोध होने लगा है। इसके साथ ही राज्य में मूल निवास की अनिवार्यता 1950 करने की मांग की गई है। वर्ष 1950 से राज्य में रह रहे लोगों को ही मूल निवासी/स्थाई निवासी माने जाने की मांग उठ रही है।
शुरू से समझें मूल निवास का मुद्दा
उत्तराखंड में मूल निवास और स्थायी निवास की बहस छिड़ी हुई है। हर कोई मूल निवास और स्थायी निवास के पक्ष में अपनी-अपनी दलीलें दे रहा है, लेकिन मूल निवास और स्थायी निवास के पीछे तकनीकी पहलू क्या है और कानूनी जानकार इसके बारे में क्या कहते हैं? आइए विस्तार से जानते हैं। उत्तराखंड में मूल निवास और स्थायी निवास के कानूनी पेचीदगियों पर बारीकी से अध्ययन करने वाले पंकज पैन्यूली विभिन्न मीडिया प्लेटमार्फ को दिए वक्तव्य में बताते हैं कि 8 अगस्त 1950 और 6 सितंबर 1950 को राष्ट्रपति के माध्यम से एक नोटिफिकेशन जारी किया गया था। जिसको साल 1961 में गजट नोटिफिकेशन के तहत प्रकाशित किया गया था। इसमें भारत के अधिवासन को लेकर कहा गया था कि साल 1950 से जो व्यक्ति देश के जिस राज्य में मौजूद है, वो वहीं का मूल निवासी होगा। इस नोटिफिकेशन में साफ तौर से मूल निवास की परिभाषा को परिभाषित किया गया था। मूल निवास की अवधारणा को लेकर के भी स्पष्ट व्याख्यान किया गया था।
मूल निवास को लेकर साल 1977 में हुई पहली बहस
भारत में मूल निवास को लेकर पहली बहस साल 1977 में हुई, जब 1961 में महाराष्ट्र और गुजरात राज्य का विभाजन हुआ और यहां पर मराठा संप्रदाय ने मूल निवास को लेकर पहली बार सुप्रीम कोर्ट में बहस की.इसके बाद देश की सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ यानी कि आठ जजों की पीठ ने अपने फैसले में राष्ट्रपति के साल 1950 के नोटिफिकेशन को मूल निवास के लिए देश के हर एक राज्य में बाध्य किया। साथ ही 1950 में प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को बाध्य मानते हुए मूल निवास की सीमा को 1950 ही रखा।
उत्तराखंड में राज्य गठन के साथ ही हुई स्थायी निवास की एंट्री
साल 2000 में देश के तीन नए राज्यों का गठन हुआ, जिसमें उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ शामिल थे. इन तीन नए राज्यों में से झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्य ने मूल निवास को लेकर के प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को मान्य मानते हुए 1950 को ही मूल निवास रखा, लेकिन उत्तराखंड में बतौर मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी के नेतृत्व में बनी बीजेपी की अंतरिम सरकार ने मूल निवास के साथ एक स्थायी निवास की व्यवस्था कर दी। इसके तहत 15 साल पूर्व से उत्तराखंड में रहने वालों के लिए स्थायी निवास की व्यवस्था कर दी गई, लेकिन उस वक्त मूल निवास के साथ स्थायी निवास को अनिवार्य किया गया था। यानी कि अंतरिम सरकार में मूल निवास को स्थायी निवास के साथ मान्यता दी गई थी। जिसके बाद ही स्थायी निवास की व्यवस्था उत्तराखंड में चल पड़ी।
साल 2010 में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने उत्तराखंड में प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को मान्य किया
साल 2010 में जब उत्तराखंड में बीजेपी की सरकार थी, उस समय उत्तराखंड के हाईकोर्ट में ‘नैना सैनी बनाम उत्तराखंड राज्य, केस नंबर AIR 2010UTT36’ और देश के सुप्रीम कोर्ट में ‘प्रदीप जैन वर्सेस यूनियन ऑफ इंडिया केस नंबर AIR1984Sc 1420’ दो अलग-अलग याचिकाएं फाइल की गई। इन दोनों याचिकाओं में एक ही विषय रखा गया था, जिसमें उत्तराखंड में राज्य गठन के समय निवास करने वाले व्यक्ति को मूल निवासी के रूप में मान्यता देने की मांग की गई थी, लेकिन इन दोनों याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने एक ही फैसला दिया। वो फैसला 1950 में हुए प्रेसिडेंशियल नोटिफिकेशन के पक्ष में था. जहां पर याचिकाकर्ताओं को सफलता हासिल नहीं हुई और उत्तराखंड में 1950 का मूल निवास लागू रहा।
राज्य आंदोलनकारी प्रदीप कुकरेती का तर्क, साल 2012 में हुआ खेल
खत्म हुआ मूल निवास का अस्तित्व:साल 2012 में उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार आई और इसी दौरान ही मूल निवास और स्थायी निवास को लेकर वास्तविक खेल हुआ। 17 अगस्त 2012 को उत्तराखंड हाईकोर्ट में एक याचिका की सुनवाई हुई। जिसमें हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने फैसला दिया कि 9 नवंबर 2000 के दिन से राज्य में निवास करने वाले व्यक्तियों को मूल निवासी माना जाएगा। हालांकि, यह उत्तराखंड राज्य पुनर्गठन अधिनियम 2000 की धारा 24 और 25 के अधिनियम 5 और 6 अनुसूची के साथ 1950 में लागू हुए प्रेसिडेंशियल नोटिफिकेशन से भिन्न था। इसके बावजूद भी सरकार ने सिंगल बेंच के इस फैसले को चुनौती न देते हुए इसे स्वीकार कर लिया। साथ ही सरकार ने साल 2012 के बाद से मूल निवास बनाने की व्यवस्था भी बंद कर दी। तब से उत्तराखंड में केवल स्थायी निवास की व्यवस्था ही लागू है।
वर्तमान व्यवस्था में तकनीकी खामी, कोर्ट में चुनौती की तैयारी
उत्तराखंड में मूल निवास स्वाभिमान आंदोलन की तैयारी कर रहे प्रबुद्ध लोगों के साथ इस आंदोलन में तकनीकी जानकार भी जुड़े हुए हैं। वहीं, इन्हीं में से एक पंकज पैन्यूली का कहना है कि साल 2012 में उत्तराखंड हाई कोर्ट के सिंगल बेंच के फैसले को सरकार को चुनौती देनी चाहिए थी। बावजूद इसके सरकार ने इसे मान्य किया और प्रदेश में लागू कर दिया। उन्होंने कहा कि जहां एक तरफ जन आंदोलन के रूप में मूल निवास और मूल निवासियों के अधिकारों को लेकर मांग की जा रही है तो वहीं दूसरी तरफ इस पूरे विषय के तकनीकी पहलुओं पर भी लगातार काम किया जा रहा है। इस मामले को कोर्ट में भी चुनौती दी जाएगी। प्रदेश के निवासियों के हितों के बारे में सोचने की जिम्मेदारी सरकार की है। अगर सरकार अपनी जिम्मेदारी को समझे तो यह विषय आसानी से सुलझ सकता है।