चुनावी बहस में नहीं आती असुरक्षित प्रसव की डरावनी तस्वीरें

चुनावी बहस में नहीं आती असुरक्षित प्रसव की डरावनी तस्वीरें

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में विषम भूगोल ही नहीं बल्कि सरकारों की वित्तीय कंजूसी और शासन तंत्र के ‘ढोल की पोल शैली‘ ने प्रसव वेदना में तड़पती जननी और नवजातों को सुरक्षित मातृत्व के अहसास से सही मायने में अभी तक दूर ही रखा है, पर अजीब विडंबना है कि अगले पांच सालों के लिए शासक चुनने के लोकतांत्रिक विधान ‘चुनावों‘ में यह गंभीर चर्चा का मुद्दा नहीं बनता।

दून विनर संवाददाता/देहरादून 

73 वें गणतंत्र दिवस से पांच दिन पहले कड़ाके की सर्दी के बीच नैनीताल जिला मुख्यालय से दस किलोमीटर दूर भूमियाधार की एक गर्भवती महिला के सड़क पर ही प्रसव होने की घटना उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में तकरीबन हर पखवाड़े की प्रकाश में आने वाली उन तमाम अन्य घटनाओं में से एक है जिनमें प्रसव कालीन चिकित्सा सुविधा से महरूम कोई प्रसूता प्रसव पीड़ा से बिलखती घर के एक कोने, गांव के खेतों, पशुशाला, कई किमी दूर मौजूद अस्पताल तक आते रास्ते में या सड़क से अस्पताल जाते हुए एम्बुलेंस में ही बच्चे को जन्म देने को विवश है। सरकार के सुरक्षित मातृत्व के बहुप्रचारित स्लोगन पर तो ये घटनाएं बड़ा सवाल हैं ही।

 भूमियाधार की इस घटना के बारे में दैनिक समाचार पत्र हिन्दुस्तान की 21 जनवरी 2022 की डेटलाइन में छपा है, ‘‘नैनीताल जिला मुख्यालय से 10 किमी दूर मल्ला भूमियाधार निवासी मनोज आर्य की पत्नी निर्मला आर्य गर्भवती थी। सुबह नौ बजे उसे अचानक प्रसव का दर्द शुरू होने लगा। इस पर 108 एंबुलेंस को फोन किया, पर 10 बजे तक एंबुलेंस नहीं पहुंची। इसके बाद परिजन प्रसूता को सड़क तक लाने की कोशिश करने लगे। पर प्रसूता ने इसी बीच सड़क में ही बच्चे को जन्म दे दिया।‘‘ अखबार लिखता है कि ‘‘आशा कार्यकत्री हंसी टम्टा ने बताया कि प्रसूता के फोन आते ही वह उनके घर गई। फिर 108 को फोन किया लेकिन एक घंटे बाद भी एंबुलेंस नहीं पहुंची। 108 वाले स्थानीय एंबुलेंस का टायर पंक्चर होने का हवाला देते रहे। सामाजिक कार्यकर्ता पंकज बिष्ट ने बताया कि वह अपने निजी काम से बाजार आ रहे थे। उन्होंने देखा कि सड़क में कुछ महिलाएं खड़ी हैं। पास जाने पर पता चला कि एक महिला ने बच्चे को जन्म दिया है। पूछने पर उन्होंने बताया कि वह 108 एंबुलेंस का इंतजार कर रहे थे। फिर वह महिला व बच्चे को सीएचसी भवाली लाए। उन्होंने बताया कि नौ से 11 बजे तक एंबुलेंस नहीं आई। भवाली स्वास्थ्य केंद्र की डॉक्टर अरीता सक्सेना ने बताया कि महिला ने सात माह में बच्चे को जन्म दिया है। फिलहाल उपचार के बाद मां-बच्चे को एसटीएच हल्द्वानी रेफर कर दिया है।”
आंशिक मैदानी क्षेत्र में स्थित नैनीताल जिले की इस घटना से पांच दिन पहले सीमांत पर्वतीय जिले चमोली में रास्ते में प्रसव हो जाने की घटना हुई। अमर उजाला में 16 जनवरी 2022 की डेट लाइन में प्रकाशित एक रिपोर्ट कहती है,‘‘चमोली के घाट क्षेत्र के प्राणमति गांव के राजेंद्र कुमार की पत्नी करिश्मा देवी (27) को शनिवार रात से ही प्रसव पीड़ा हो रही थी लेकिन गांव में सड़क न होने पर उन्हें सुबह का इंतजार करना पड़ा। रविवार सुबह सात बजे ग्रामीणों ने महिला को अस्पताल ले जाने की तैयारी की और कुर्सी को लकड़ी के डंडों पर रस्सी के सहारे बांधा और कंधे पर करीब सात किलोमीटर तक पैदल चलकर महिला को सड़क तक पहुंचाया। इसके बाद महिला को एंबुलेंस में ले जाया गया, लेकिन सीएचसी से करीब आठ किलोमीटर पहले ही महिला ने वादुक बैंड पर ही बच्चे को जन्म दे दिया। ग्रामीण महिलाओं ने एंबुलेंस में ही महिला का प्रसव कराया। बाद में एंबुलेंस से ही जच्चा-बच्चा को सीएचसी घाट में भर्ती कराया गया। सीएमओ डा. एसपी कुड़ियाल ने बताया कि जच्चा-बच्चा दोनों स्वस्थ हैं।  ‘‘ रिपोर्ट आगे कहती है कि  ‘‘ग्राम प्रधान सरस्वती देवी और सामाजिक कार्यकर्ता यशपाल सिंह नेगी ने बताया कि यदि महिला को पैदल लाने में थोड़ी भी देरी होती तो दिक्कत हो सकती थी। उन्होंने बताया कि सड़क न होने से प्राणमति, कनोल और बड़गुना गांव के ग्रामीणों को सात किलोमीटर की पैदल दूरी नापनी पड़ रही है। वर्ष 2018 में मुख्यमंत्री ने सितेल-प्राणमति (7 किमी) सड़क के निर्माण की घोषणा की थी, लेकिन अभी तक सड़क निर्माण कार्य वन भूमि हस्तांतरण प्रक्रिया पर रुका हुआ है। बीते दिनों क्षेत्र में भारी बर्फबारी हुई, जिससे पैदल रास्ता फिसलन भरा बना है। ग्रामीण जान जोखिम में डालकर आवाजाही करने के लिए मजबूर हैं। साथ ही गर्भवती महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों को लंबी दूरी पैदल आवाजाही में दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।‘‘
पहाड़ों पर कई बार यातायात की विषम परिस्थितियों के साथ-साथ अस्पतालों में भी वक्त पर चिकित्सा नहीं मिलती तब प्रसव पीड़ा झेलती गर्भवती और उसके परिजनों की हालत बदहवास सी होना तय है। प्रसव पीड़ा में 49 किमी की दौड़ हॉलीवुड की किसी हॉरर फिल्म से कम नहीं है। जागरण अखबार में 29 सितंबर 2021 की डेट लाइन है, ‘‘द्वाराहाट ब्लॉक के छतगुल्ला गांव के गरीब किशन राम की गर्भवती पत्नी चंपा देवी को नौ किमी दूर सीएचसी लाया गया। वह प्रसव पीड़ा से कराह रही थी। उसे 33 किमी दूर नागरिक चिकित्सालय रानीखेत रेफर कर दिया गया। वहां महिला चिकित्सक ने प्रसूता को हल्द्वानी ले जाने की सलाह दी। गर्भवती को एंबुलेंस से भेजा गया। जबकि किशन राम को किराए में वाहन बुककर रवाना होना पड़ा। रानीखेत नगर से सात किमी दूर पिलखोली के पास पहुंचे ही थे कि चंपादेवी ने 49 किमी के सफर की पीड़ा को बर्दास्त कर पुत्री को एंबुलेंस में ही जन्म दे दिया। आनन-फानन में उसे सीएचसी खैरना
(नैनीताल) में भर्ती कराया गया। चिकित्सकों के आश्वस्त करने व उपचार के बाद प्रसूता को वापस गांव ले जाया गया।‘‘ इस पूरे घटनाक्रम को लचर स्वास्थ्य व्यवस्था का प्रमाण बताते हुए जिपं सदस्य अंजू देवी ने इसे विभाग की बड़ी लापरवाही करार दिया। अखबार की रिपोर्ट में डा. तपन शर्मा, प्रभारी चिकित्साधिकारी, सीएचसी द्वाराहाट का बयान भी छपा है,
‘‘ प्रसव के मामले में दोनों जिंदगी सुरक्षित रखने के मकसद से रेफर का निर्णय लिया जाता है। छतगुल्ला वाले केस में बच्चे की हार्टबीट बढ़ी हुई थी। मूवमेंट नहीं था। कुल मिलाकर खतरे की संभावना देख उसे रेफर किया गया।‘‘
आज से ढाई साल पहले अक्टूबर 2019 में गंगोलीहाट विधायक मीना गंगोला की देवरानी तक को प्रसव के दौरान वक्त पर चिकित्सा सुविधा नहीं मिलने से बेहद तकलीफ झेलनी पड़ी थी। उन्हें प्रसव पीड़ा होने पर बेरीनाग अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां से डॉक्टरों ने उन्हें हायर सेंटर रेफर कर दिया। 108 से अल्मोड़ा ले जाते समय तबीयत बिगड़ने पर रास्ते में एम्बुलेंस में ही उनका प्रसव कराया गया। प्रसव के बाद जच्चा-बच्चा को अल्मोड़ा के निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया। बच्चे को डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया। डॉक्टरों का कहना था कि अगर सही समय पर सही उपचार मिलता तो बच्चे को बचाया जा सकता था। (न्यूज नेशन की 5 अक्टूबर 2019 डेटलाइन की खबर के अनुसार)।
स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में इस तरह की सन्न कर देने वाली घटनाओं का कोई खास क्षेत्र नहीं है बल्कि राजधानी वाले जिले देहरादून के पर्वतीय इलाके हों या मैदानी जिले हरिद्वार के ग्रामीण क्षेत्र, कई बार सार्वजनिक प्रसवकालीन सुविधाओं के लंबी दूरी पर होने से इमरजेंसी की हालत में भारी कठिनाई आती है। समय पर प्रसवकालीन चिकित्सा सुविधा नहीं मिलने पर जच्चा-बच्चा दोनों के जीवन के लिए जोखिम बने रहना लाजमी है।
 चुनाव तो पांच साल में एक बार आता है पर सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में सैकड़ों प्रसव रोज होते हैं पर जो सैकड़ों-हजारों की संख्या में हर रोज होता है, चुनावों में उसकी सुरक्षा पर गंभीरता से बहस नहीं हो रही। पापुलर मीडिया के लिए गर्भावस्था और प्रसवकाल में जच्चा-बच्चा को दी जा रही सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर चुनावों में जा रहे राजनैतिक दलों से तीखे सवाल, धर्म-सम्प्रदाय और जात-पात को लेकर भड़कती बहसें खड़ी करने जैसे नहीं हो सकते पर इस हकीकत से शुतुर्मुर्गी दाव से बचा नहीं जा सकता कि उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में सुरक्षित मातृत्व एक मुख्य सवाल है। ये किस तरह की प्रगति और विकास का मानक है कि आज से पचास साल पहले गांवों में जिस तरह प्रसव भगवान भरोसे होता था वही कहानी आज भी दोहराई जा रही है। पहले गांवों में अनुभवी दाइयां हुआ करती थीं परन्तु अब उनका जमाना भी गुजर चुका है इसलिए वक्त पर चिकित्सा नहीं मिलना काफी जोखिम भरा हो रहा है।
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