धर्म का वास्तविक अर्थ क्या है?

ओम प्रकाश उनियाल
विश्व में जितने भी धर्म हैं सब अपना-अपना वर्चस्व बनाए रखने की लड़ाई लड़ रहे है़ं। हर धर्म के अनुयायी चाहते हैं कि उनके धर्म का हर तरफ बोलबाला हो। यही कारण है कि इंसान ने इस युग में भगवान को भी बांट कर रख दिया है। भगवान को धर्म के आधार पर बांटकर जबरन कई अवतार बना दिए गए हैं। अलग-अलग धर्म होने के कारण ही मनुष्य के भीतर आपसी वैमनस्य, राग-द्वेष, भेदभाव पनपा हुआ है। जिसने सृष्टि रची उसने ना ही अलग-अलग धर्म बनाए और ना ही अलग-अलग देश। वह तो एकाकार है तथा सर्वत्र विद्यमान है। यह सब तो मनुष्य ने ही रचा। मनुष्य ने खुद को काल, स्थान, वातावरण और परिस्थिति के अनुरूप ढालकर अपनी बसावट की और अपने ही बलबूते पर अपनी संस्कृति, इतिहास, खान-पान, रहन-सहन, बोली-भाषा को विकसित किया।
जैसाकि, हिन्दुओं के पौराणिक ग्रंथों में अलग-अलग युगों का वर्णन है। जो धर्म की वास्तविकता को स्पष्ट करते हैं। जहां तक इतिहास की बात है तो जिस देश में जो बहुसंख्यक रहे उन्होंने अपने धर्म के अनुसार राज चलाया। उनका राज-काज इतिहास बन गया। भारत को ही लीजिए जब मुगल साम्राज्य रहा तो उनके धर्म की तूती बोलती रही, ऑंग्ल शासक रहे तो मिशनरी का बोलबाला रहा। इतिहास में उनका उल्लेख होता है। यही क्रम अन्य देशों का भी है।
धर्म का मतलब हम केवल धार्मिकता से लेते हैं। धर्म का शाब्दिक अर्थ धारण या पालन करना भी है। मानवता, सदाचार, व्यवहारिकता, सहनशीलता, दयालुता धारण करना या पालन करना। मगर मनुष्य के भीतर इतनी अज्ञानता भरी हुयी है या यूं कहें कि उसे खुद पर इतना भरोसा है या फिर उसके भीतर इतना अहम है कि धर्म को ढाल बनाकर, उसका सहारा लेकर अपने को या अपने धर्म को श्रेष्ठ दिखाना चाहता है। अब तो धर्म का राजनीतिकरण, व्यवसायीकरण हो चुका है। छोटे-छोटे विवादों में धर्म को बीच में डालकर जमकर राजनीति की जाती है। यही नहीं दंगे-फसाद कर अशांति और अराजकता का वातावरण पैदा किया जाता है। धर्म के नाम चंदा वसूली करके, धर्मस्थलों में श्रद्धालुओं की जेबें ढीली करके, धर्म का आडंबर रचकर तरह-तरह के कुकृत्य कर धर्म को बदनाम करने का प्रयास किया जा रहा है। गली-मोहल्लों से लेकर धार्मिक स्थलों पर धर्म के ठेकेदारों का एकाधिपत्य होने के कारण धर्म की छवि धूमिल हो रही है। जिनके जाल में फंसकर आम आदमी अंधभक्त बन जाता है। विश्व में जितने भी धर्म हैं सभी सन्मार्ग, सदविचार, सांप्रदायिक सद्भाव, सम्मान व शांति की राह पर चलने का संदेश देते हैं। बस फर्क इतना है कि उस धर्म को मानने वाले उसका कितना और किस रूप में अनुसरण करते हैं।

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