रमेश राम /लोहाघाट
उत्तराखण्ड के तमाम राजनीतिक दल इन दिनों विधानसभा चुनाव-2022 की तैयारी में लगे है। वे अपने-अपने तरीके से इस चुनाव के नारे और अपनी रणनीति बनाने में जुटे हैं। उनकी अपनी जो भी नीतियां होंगी, वह अलग बात है, लेकिन एक समानता सभी दलों में है। सभी पार्टियों के लिए इस चुनाव की जीत के अपने मायने हैं। भाजपा नहीं चाहती कि किसी भी कीमत पर सत्ता उससे दूर हो। लंबे समय तक राज करती आई कांग्रेस के लिए सत्ता में आना बहुत जरूरी है।
आज के राजनीतिक माहौल में सत्ता से ज्यादा दूर रहने का मतलब है संगठनात्मक कमजोरी। हर चुनाव के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं का मोहभंग इस बात का संकेत है कि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में मुद्दों और जनता के सवालों से महत्वपूर्ण सत्ता में रहकर अपने हितों को साधना रह गया है। ऐसे में जब भी राजनीतिक दल अपने किसी मिशन की बात करते हैं, लोग उस पर विश्वास नहीं कर पाते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण राजनीतिक दलों का आम जनता से संवाद का संकट भी है। दलों में लगातार समाप्त हो रहे कैडर आधारित संगठनात्क स्वरूप के समाप्त होने से भी फर्क पड़ा है। जब भी वे अपने विजन के बारे में बताते हैं वह सिर्फ चुनाव तक ही सीमित रहता है। चूंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता के मत से सरकारें बनती हैं, इसलिए उनके सवालों को चुनाव की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि व्यापक और सर्वांर्गण विकास के रूप में देखा जाना चाहिए।
चुनाव के समय भी जनता को बताया जाना चाहिए कि आखिर पार्टियां जनता के सवालों के जवाब के लिए कौन सा काम करने जा रही है। सिर्फ चुनावी घोषणा पत्र ही नहीं, उसमें विकास की मंशा भी झलकनी चाहिए। दुर्भाग्य से राज्य में होने वाले चुनाव के लिए भी राजनीतिक दलों के पास ऐसा कोई विचार नहीं है, जिससे जनता एक अच्छे भविष्य की कल्पना कर सके।
प्रसंगवश राजनीतिक पार्टियों की बात और उनके मुद्दों की समझ को जानने का यह सबसे उचित समय है। राज्य निर्माण के दो दशक बाद होने वाले चुनाव में जनता अपने होने वाले प्रतिनिधियों से इस पूरे समय का हिसाब-किताब पूछने का हक तो रखती ही है। जब यह चुनाव होगा तो लोगों के सामने बहुत सारी चुनौतियां और उन आकांक्षाओं को पूरा न होने का गुस्सा भी होगा जिसके लिए अलग राज्य का सपना बुना जा रहा था। राज्य की जो हालत है उससे अब इन सवालों को ज्यादा दिन टाला भी नहीं जा सकता। हम न भी कहें तो जनता की तकलीफें खुद-ब-खुद सामने आ जाएंगी।
राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा और प्रमुख विपक्षी कांग्रेस राज्य बनने से पहले और बाद में भी शासन करती रही है। इस पूरे दौर में यहां की बेहतरी के लिए ऐसा कुछ नहीं हुआ है, जिसे याद किया जा सके। क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां और संगठनों ने भी तीसरे विकल्प को मजबूती से नहीं रखा। तमाम सवालों पर एक जैसा सोचने के बावजूद उन्होंने हमेशा अलग-अलग टेंटों से अपनी राजनीति की। देश के अन्य हिस्सों में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने जिस तरह के एजेंडे रखे हैं, उससे उनकी प्रासंगिकता बढ़ी है। वहां राष्ट्रीय राजनीतिक दल न चाहते हुए भी क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के दबाव में अपना वही एजेंडा तय करते हैं, जो जनता चाहती है। इस तरह एक विजन और राजनीतिक ताकत को समझने और उसको अमली जामा पहनाने के प्रयास से भी उन्हें सफलता भी मिलती रही है।