नौकरशाहों को सीएम पुष्कर धामी की सख्त हिदायत

नौकरशाहों को सीएम पुष्कर धामी की सख्त हिदायत

‘न सोऊंगा, न ही सोने दूंगा

अपनी परंपरागत विधानसभा सीट खटीमा से चुनाव हार जाने के बावजूद मुख्यमंत्री के रूप में भाजपा हाईकमान की पसंद बने पुष्कर सिंह धामी शायद नौकरशाही की सुस्ती को लेकर इस बार कुछ ज्यादा गंभीर हैं। इसलिए जन आकांक्षाओं के बोझ को कम करने और चुनाव में किए गए वायदों को पूरा करने को लेकर उन्होंने साफ कह दिया है कि ‘वह न तो खुद सोएंगे और न ही अधिकारियों को सोने देंगे। ऐसा कहकर उन्होंने संदेश दिया है कि राजकोष से वेतन-भत्ते और सुविधाएं लेने वालों की काम के मामले में सुस्ती बर्दाश्त नहीं की जाएगी। यह सही है कि युवा पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी कई दिग्गजों को दरकिनार कर दी गई है, इसलिए उनके सामने बेहतर प्रदर्शन के साथ जिम्मेदार और जवाबदेह सरकार देने की चुनौती है। यह तभी संभव है  जब सुविधाभोगी और सरकार पर हावी रहने वाली नौकरशाही को काबू किया जाए। यही नहीं सरकार के एजेंडे पर काम कराना तथा अंतिम छोर पर खड़े आम आदमी तक सरकारी सुविधाओं और योजनाओं का लाभ पहुंचाना भी चुनौती है। हालांकि इसके लिए यह भी जरूरी है कि मुखिया के इर्द-गिर्द रहने वाले कथित स्वार्थी सलाहकारों और चकड़ैतों के प्रभाव से बचा जाए। प्राय: ऐसे लोग ही सरकार की छवि बनाने के बजाय बिगाडऩे का काम करते हैं। मुख्यमंत्री ने साफ कर दिया है कि सिस्टम में रहते हुए सभी को अपना काम तन्मयता और तत्परता से करना ही होगा।
दून विनर /देहरादून
बतौर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री अपनी दूसरी पारी में पुष्कर सिंह धामी सत्ता की बागडोर संभालने के बाद से ही रौ में आते हुए दिखाई देने लगे हैं। मुख्यमंत्री ने सामाजिक कल्याण की योजनाओं में राजकोषीय थैली का मुंह थोड़ा और खोलने के साथ ही सरकार के 100 दिन के एक्शन प्लान पर फोकस किया है। उनके सम्मुख जनता की उम्मीदों को भरोसे में बदलने के साथ-साथ दुबारा मुख्यमंत्री के पद पर बैठाने वाले पार्टी हाईकमान की नजरों में भी खरा उतरने की चुनौती है। सरकार के सामने पूरे पांच साल के कार्यकाल को देखते हुए इस बार उनके पास प्रदेश के विकास के लिए अधूरी योजनाओं को पूरा करने और नई परियोजनाओं पर काम करने का पूरा समय है। निवर्तमान सरकार के अपने छह माह के कार्यकाल में बतौर मुख्यमंत्री की गई दर्जनों घोषणाओं को जमीन पर उतारने के लिए भी धामी के पास बेहतर मौका है। इसके साथ ही उन्हें छह महीने के भीतर विधानसभा की सदस्यता भी हासिल करनी है। विधानसभा चुनाव में खटीमा से चुनाव लड़ते हुए वे इस बार हार गए थे। माना जा रहा है कि उपचुनाव में जीत दर्ज करने में मुख्यमंत्री धामी को कोई कठिनाई नहीं आएगी, हालांकि अभी ये तय होना बाकी है कि धामी किस सीट पर चुनाव में उतरेंगे। सभी 70 सीटों पर निर्वाचित जनप्रतिनिधि होने से भाजपा को पहले धामी को चुनाव लड़ाने के लिए एक सीट को रिक्त कराना होगा। भाजपा की कोशिश है कि विपक्षी दल कांग्रेस में सेंधमारी कर धामी के लिए सीट का इंतजाम किया जाए पर सुरक्षित सीट की तलाश में पार्टी की यह योजना परवान नहीं भी चढ सकती है, ऐसे में चंपावत या पिथौरागढ में किसी भाजपा विधायक को ही सीट रिक्त करने का फरमान जारी होने की ज्यादा संभावना है।
हकीकत तो ये है कि दो-तिहाई बहुमत के साथ सत्तारूढ हुई धामी सरकार की स्थिरता को लेकर कोई सवाल नहीं है, परन्तु सरकार को शुरू में ही जिस तरह से प्रदेश की नौकरशाही के तेवरों पर लगाम लगाने को मशक्कत करनी पड़ रही है, उससे आने वाले समय में सरकार के लक्ष्यों को समयबद्ध तरीके से पूरा करने के लिए नौकरशाही को साधना जरूरी हो गया है। मुख्यमंत्री ने ये साफ  भी कर दिया है कि प्रदेश की जनता को काम करने वाली गतिशील सरकार देने के लिए शासन-प्रशासन में किसी तरह की कोताई सहन नहीं की जाएगी। अप्रैल के पहले सप्ताह में सचिवालय में पीडब्ल्यूडी की निर्माणाधीन सड़क और पुल परियोजनाओं की समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री पुष्कर सिह धामी ने अफसरों को चेताते कहा कि राज्य के विकास और जनहित के कामों के लिए वे न तो खुद चैन से बैठेंगे और न अफसरों को बैठने देंगे। मुख्यमंत्री ने अतिक्रमण के खिलाफ  कड़ी कार्यवाही के भी संकेत दिए हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में उत्तराखंड में भी पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश की तरह अतिक्रमण को ध्वस्त करने के लिए क्रुद्ध हाथी की तरह बढ़ते बुल्डोजर को लेकर कई रोचक मिथक देखने को भी मिल सकते हैं।
मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही पुष्कर सिंह धामी ने भाजपा के चुनावी वायदे के मुताबिक समान नागरिकता संहिता निर्माण के लिए प्रयास शुरू करने का ऐलान किया है। इस मुद्दे को भाजपा के कोर लक्ष्यों में से एक माना जाता है। संहिता निर्माण के लिए मसौदा तैयार करना भी आसान नहीं होगा। राजनैतिक विरोध के साथ ही इसमें कई कानूनी उलझनें आ सकती हैं। उत्तराखंड में रोजगार बढोतरी की दिशा में कारगर तरीके से बढना सरकार के सामने मुश्किल चुनौती है। पढे-लिखे युवा बेरोजगारों की संख्या को देखते हुए सरकारी विभागों में चंद हजार पद भरने से ज्यादा राहत नहीं मिलने वाली, बल्कि साथ- साथ  निजी क्षेत्र में बेहतर संख्या में रोजगार सृजन जरूरी है। वर्ष 2018 में देहरादून में हुए इन्वेस्टर्स समिट के लक्ष्य अभी भी अधूरे पड़े हैं। इस आयोजन की समीक्षा होनी जरूरी है, ताकि आगे के लिए निजी निवेश को बढाने की ठोस कार्यनीति निर्धारित की जा सके। विकास योजनाओं और पर्यावरण के नाजुक तालमेल से टिकाऊ विकास की अवधारणा को अमली जामा पहनाने के लिए श़रुआत भी करनी होगी। ज्ञान आधारित इंडस्ट्री की बातों को जमीन पर उतारना होगा। मैदानों और पहाड़ों के बीच विकास की खाई को पाटने की चुनौती है। राज्य के आर्थिक संसाधनों के विकास के साथ केन्द्र की परियोजनाओं के सफल क्रियान्वयन का सवाल है। इनके अलावा कई और भी मुद्दे राज्य के विकास और जनाकांक्षाओं से जुड़े हैं। साफ है कि नौकरशाही की प्रतिबद्धता, कुशलता, अनुशासन और जनता के प्रति उत्तरदायित्व की संवेदना के बिना सरकार अपने लक्ष्यों को नहीं पा सकती। पिछला अनुभव है कि नौकरशाही के सरकार पर हावी होने के परिणाम सरकार की अस्थिरता तक बढा सकते हैं। वर्ष 2017 में भारी बहुमत के साथ सत्ता में बैठी त्रिवेन्द्र रावत सरकार के बारे में कोई नहीं सोचता था कि चौथा साल पूरा होते-होते सरकार में भारी अस्थिरता आएगी पर सच्चाई यही है कि मुख्यमंत्री से उनकी पार्टी के विधायकों ने बगावती तेवर अपना लिए थे। इसका एक बड़़ा कारण यही बताया गया कि नौकरशाही विधायकों की बात को तवज्जो नहीं देती, जबकि विधायकों के सामने चुनाव में जाने से पहले विधानसभा क्षेत्र की जनता के सामने अपना रिपोर्ट कार्ड देना होता है। नाराज विधायकों ने आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री की कार्यशैली से अफशरशाही बेलगाम हो गई है, वह जनप्रतिनिधियों की बात ही नहीं सुनती। जाहिर है युवा मुख्यमंत्री धामी के सामने नौकरशाही को संवेदनशील बनाए रखने की चुनौती खड़ी रहेगी।
सरकार के पालने से बाहर आते ही गफलत
धामी सरकार के आरूढ होते ही उत्तराखंड में पहाड़ के चार डिपो बंद कर दिए जाने की खबर हवा की तरह फैल गई। यही नहीं बकायदा इस खबर की आधिकारिक रूप से भी पुष्टि हुई थी। दरअसल परिवहन निगम के कुछ अधिकारियों ने कह दिया था कि पहाड़ के 4 डिपो बंद कर दिए जाएंगे। सरकार की इस तरह की मंशा का कई जगहों पर विरोध हुआ। आनन-फानन में परिवहन मंत्री चंदन राम दास को खुद सामने आकर कहना पड़ा कि उत्तराखंड के किसी भी रोड़वेज डिपो को किसी भी हाल में बंद नहीं किया जाएगा। परिवहन मंत्री ने दावा किया कि उन्होंने रोडवेज के चार डिपो को बंद करने के फैसले पर रोक लगा दी है। फजीहत की स्थिति से खफा होकर परिवहन मंत्री ने कह दिया कि बगैर विश्वास में लिए किसी भी तरह का नीतिगत फैसला कदापि मान्य नहीं होगा। इस तरह की परिस्थितियां तभी आती हैं, जब जनादेश लेकर आई सरकार और स्थाई रूप से सरकार के मस्तिष्क की तरह काम करने वाली नौकरशाही के बीच संवाद की कमी हो। पहाड़ों में रोडवेज डिपो बंद करने का निर्णय जिम्मेदार अधिकारियों ने अपरिहार्य मानकर ही लिया, तब भी इसे सार्वजनिक करने से पहले तक विभागीय मंत्री को क्यों नहीं बताया गया? या मंत्री साहब की नींद ही प्रभावित जनता और विभाग के कर्मचारियों के विरोध के बाद टूटी? इस तरह की गफलत की वजह जो भी रही हो, परंतु ये सवाल मौजूं है कि जनता द्वारा चुने गए प्रशासकीय पदों पर बैठे जनप्रतिनिधियों को उनके मातहत काम करने वाले अधिकारी अंधेरे में रखकर प्रस्तावों को निर्णय में बदल डालेंगे तो आम लोगों की मांगों, आकांक्षाओं की सुनवाई कैसे संभव होगी।
धामी के मुख्यमंत्री पद संभालने के एक सप्ताह बाद ही स्वास्थ्य सचिव डॉ. पंकज पांडे के देहरादून राजकीय मेडिकल कॉलेज की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. निधि उनियाल के तत्काल सोबन सिंह जीना राजकीय आयुर्विज्ञान व शोध संस्थान, अल्मोड़ा में ज्वाइनिंग देने के आदेश ने भी काफी सुर्खियां बटोरी हैं।
दरअसल यह आदेश डॉ. निधि को स्वास्थ्य सचिव डा. पंकज पांडे की पत्नी से हुए विवाद के तुरन्त बाद जारी किया गया इसलिए इसके मायने दूसरे लगाए जा रहे हैं। इसे नौकरशाहों को प्रशासन चलाने को दी गई शक्ति के दुरुपयोग के तौर पर देखा गया है। इस मामले में ये जानना जरूरी है कि दून मेडिकल कालेज प्रशासन के दबाव के बाद ही ओपीडी में मरीजों को देखना छोड़ डॉ. निधि उनियाल स्वास्थ्य सचिव की पत्नी को आवास पर देखने गई। चेकअप करने के लिए साथ लाई बीपी मशीन को डॉक्टर वाहन में ही भूल गईं। सहायक कर्मी से मशीन लाने को कहा गया, पर इसके बाद स्वास्थ्य सचिव की पत्नी ने विवाद की शुरुआत कर दी। डॉ. का आरोप है कि उन्हें अपमानित किया गया। विवाद बढने पर डॉ. लौट आईं। कॉलेज प्रशासन ने हाई प्रोफाइल मामला देखते हुए डॉ. निधि से स्वास्थ्य सचिव की पत्नी से माफी मांगने को कहा, पर डॉ. ने मना कर दिया। इसके बाद कमाल तो ये हुआ कि स्वास्थ्य सचिव पंकज पांडे ने डॉ. निधि उनियाल को तत्काल सोबन सिंह जीना राजकीय आयुर्विज्ञान व शोध संस्थान, अल्मोड़ा ज्वाइन करने के आदेश जारी कर दिए। डाक्टर निधि उनियाल ने पद से इस्तीफा दे दिया। इस घटना के बाद चिकित्सकों में ही नहीं, बल्कि खबर से वाकिफ लोगों में भी रोष उत्पन्न हुआ। मुख्यमंत्री धामी को हस्तक्षेप करना पड़ा। डॉ. निधि के स्थानांतरण आदेश को रद्द किया गया और मुख्यमंत्री के निर्देश पर मुख्य सचिव ने मामले की जांच अपर मुख्य सचिव मनीषा पंवार को सौंप दी है। याद रहे कि नेशनल हाईवे-74 विस्तारीकरण के लिए अधिकृत की गई जमीन के मुआवजे मामले में निलंबित हुए डेढ दर्जन पीसीएस और राजस्व अधिकारियों के अलावा वर्ष २०१८ में आइएएस अधिकारी पंकज पांडे और चन्द्रेश यादव को भी निलंबित किया गया था। हालांकि उन्हें त्रिवेन्द्र रावत सरकार में ही २०१९ के आम चुनावों से पहले शासन में पुन: ज्वाइनिंग दे दी गई।
डॉ. निधि उनियाल व स्वास्थ्य सचिव की पत्नी के बीच हुए प्रकरण में जांच का परिणाम क्या होगा, कब तक यह जांच शासन के पास आएगी, यह अभी कहना मुश्किल है, क्योंकि यह एक सेवारत आइएएस से जुड़ा मामला भी है। बतौर स्वास्थ्य सचिव पंकज पांडे ने अगर अपनी पत्नी के साथ हुए विवाद में डॉ. निधि को सबक सिखाने के अंदाज में अपनी प्रशासनिक शक्ति का प्रयोग किया तो इसे सही कैसे माना जा सकता है। ऐसे में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को नौकरशाहों की मनमानी को लेकर सावधान रहना जरूरी है।
नौकरशाही को संवेदनशील बनाने की जरूरत
पिछली बार के अपने अल्प कार्यकाल के अनुभवों को मुख्यमंत्री धामी इस बार बेहतर प्रशासन चलाने के लिए पूंजी की तरह प्रयुक्त करने की दिशा में बढते हुए दिखाई देने लगे हैं। उन्होंने जन कल्याण और वित्तीय प्रबंधन के साथ ही प्रशासनिक कार्यकुशलता पर विशेष जोर देना आरंभ किया है। धामी सरकार के अनाथ बच्चों को सरकारी नौकरियों में पांच प्रतिशत आरक्षण के शासनादेश, पात्र पति पत्नी दोनों को वृद्धावस्था पेंशन की व्यवस्था को पुनर्बहाल करने के निर्णय को बेहतर समर्थन मिल रहा है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने देहरादून में भाजपा के स्थापना दिवस के कार्यक्रम में भी कहा कि उत्तराखंड की सरकार आम आदमी की सरकार बनेगी, उत्तराखंड सरकार सेवा का काम करेगी। सचिवालय में अधिकारियों की 4 अप्रैल की बैठक में मुख्यमंत्री ने अफसरों को ये कहते झिंझोड़ा कि वे अब पांच माह के सीएम नहीं हैं। बैठक में मुख्यमंत्री ने साफ  कहा कि लापरवाही बरतने वालों के खिलाफ  सख्त कार्रवाई होगी।
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी अप्रैल के पहले सप्ताह दिल्ली भी पहुंच गए, जहां उनकी मुलाकात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से हुई। उन्होंने पूंजीगत निवेश के लिए राज्यों को वित्तीय सहायता की योजनाÓ के तहत उत्तराखंड के लिए स्वीकृत किए गए 527 करोड़ रुपए अवमुक्त करने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का आभार व्यक्त किया। मुख्यमंत्री ने केंद्रीय गृह मंत्री से अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के जनपदों में हिम प्रहरी योजना लागू किए जाने में केंद्र से सहयोग का अनुरोध किया और साथ ही निर्भया फंड के तहत दिए गए 25 करोड़ रुपए के राज्य सरकार के प्रस्ताव को जल्द स्वीकृत किये जाने का भी अनुरोध किया। चुनावी वादों पर अमल की दिशा में 24 मार्च की पहली कैबिनेट बैठक में यूूनिफार्म सिविल कोड की दिशा में आगे बढने का फैसला महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इसके लिए न्यायविदों, सेवानिवृत्त जज, समाज के प्रबुद्धजनों और अन्य स्टेकहोल्डर की एक कमेटी गठित करने की भी बात की गई। यह कमेटी नागरिक संहिता का ड्राफ्ट तैयार करेगी। सरकार के कामकाज के एजेंडे पर अमल के लिए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के सामने चुनौती है। सरकार की तमाम चालू और भविष्यगत योजनाओं को जमीन तक पहुंचाने व उनके लिए आवश्यक वित्तीय प्रबंधन के लिए शासन में बैठे टॉप प्रशासनिक अधिकारियों को पूर्व तैयारियों से लेकर समयबद्ध कार्य निष्पादन के लिए प्रोत्साहित करना एक बड़ा काम है। नहीं तो नौकरशाही की रेंगने की आदतें गुड़ गोबर भी कर सकती हैं। वैसे भी देखा जाए तो भारत की नौकरशाही को लेकर कई तरह के मिश्रित अनुभव रहे हैं, पर सबसे ज्यादा निशाना उसमें निहित रेड टैपिज्म के कारण रहा है।
हांगकांग आधारित पॉलीटिकल एंड इकोनॉमिक रिस्क कंसल्टेंसी लिमिटेड की वर्ष 2012 की एक रिपोर्ट में भारतीय नौकरशाही को 10 में 9.21 रेटिंग देकर एशिया में सर्वाधिक बदतर बताया गया था। इस रिपोर्ट में वियतनाम 8.54, इंडोनेशिया 8.37, फिलीपीन 7.57 और चीन 7.11 से भी नीचे भारत को स्थान दिया गया था। रिपोर्ट में सिंगापुर की नौकरशाही को 2.25 अंकों के साथ सबसे बेहतर बताया गया। इसके बाद हांग कांग 3.53, थाईलैंड 5.25, ताईवान 5.57, जापान 5.77, दक्षिण कोरिया 5.87 और मलेशिया 5.89 को स्थान दिया गया। यूं तो रिपोर्ट के पूरे मसौदे से सहमति नहीं जताई जा सकती, क्योंकि इसमें ईज ऑफ  डूइंग बिजनेस के दृष्टिकोण से आने रही बाधाओं पर ही फोकस ज्यादा है, न कि कल्याणकारी राज्य की दृष्टि से, पर उसके बावजूद रिपोर्ट के उस भाग की आज भी प्रासंगिकता से इंकार नहीं कर सकते कि जिसमें कहा गया कि नौकरशाहों को गलत फैसलों के लिए जरूर जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। अब उत्तराखंड की हाल की अफसरशाही की घटनाओं और पिछली सरकार में सामने आए मंत्री और उनके मातहत अधिकारियों के विवादों और वर्तमान में धामी सरकार में कैबिनेट मंत्री सतपाल महाराज की विभागीय मंत्री को मातहत अधिकारियों की एसीआर लिखने का अधिकार देने की मांग को तीन अन्य कैबिनेट मंत्रियों प्रेमचंद अग्रवाल, सौरभ बहुगुणा, सुबोध उनियाल के मिले समर्थन की समान वजह से जोड़ कर देखा जाए, तब साफ  है कि सरकार किसी की भी हो, उत्तराखंड में नौकरशाही खूब फलती-फूलती रही है। पिछले कई मुख्यमंत्री खुद भी नौकरशाही से जूझते रहे।

यद्यपि एनडी तिवारी सरकार में विभागीय सचिवों की एसीआर विभागीय मंत्री द्वारा लिखे जाने के बाद अंतिम प्रविष्टि के लिए मुख्यमंत्री को भेजी जाती थी, पर 2008 में एक शासनादेश से इस प्रक्रिया को बदलकर विभागीय मंत्री को टिप्पणी लिखने तक सीमित कर दिया गया, पर व्यवहार में यह प्रकिया भी पालन नहीं होती है, क्योंकि वास्तव में फाइल मुख्य सचिव के माध्यम से सीधे मुख्यमंत्री को भेजी जाती है। इस तरह विभागीय मंत्री के पास जवाबदेही को लेकर मातहत नौकरशाहों को सचेत बनाए रखने का कारगर माध्यम नहीं रह गया है। लगता है इस बारे में आगे भी मंत्री जी विवशता में छटपटाते रहने को बाध्य हैं, क्योंकि मुख्यमंत्री धामी ने पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत की तरह उनकी मांग पर कोई कार्यवाही नहीं की है। राजनेताओं के साथ नीति निर्धारण से लेकर योजनाओं के क्रियान्वयन व मूल्यांकन में नौकरशाही की महत्वपूर्ण भूमिका असंदिग्ध है। राजनेता की मर्मज्ञता का क्षेत्र राजनीति है और प्रशासन चलाने की तकनीकी का क्षेत्र प्रशासनिक अधिकारी का है। यह एक अनुभवजन्य सच्चाई है कि नीति निर्धारण और निर्माण का कार्य बिना प्रशासन की सहायता के नहीं हो सकता, बल्कि कई बार प्रशासनिक अधिकारी ही राजनैतिक नेतृत्व को नीति निर्माण के लिए परामर्श देने के अलावा प्रोत्साहित करते हैं।

अब यह तो आने वाला समय बताएगा कि उत्तराखंड के युवा मुख्यमंत्री और उनकी कैबिनेट के साथी नौकरशाही को कितना साध पाएंगे। हालांकि काम-काज संभालते जुम्मा-जुम्मा चार दिन भी नहीं बीते कि नौकरशाही ने अपन कमाल दिखाना शुरू कर दिया है, पर उम्मीद है कि मौजूदा सरकार में ये घटनाएं अपवाद ही बनकर रह जाएंगी। 
 बतौर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री अपनी दूसरी पारी में पुष्कर सिंह धामी सत्ता की बागडोर संभालने के बाद से ही रौ में आते हुए दिखाई देने लगे हैं। मुख्यमंत्री ने सामाजिक कल्याण की योजनाओं में राजकोषीय थैली का मुंह थोड़ा और खोलने के साथ ही सरकार के 100 दिन के एक्शन प्लान पर फोकस किया है। उनके सम्मुख जनता की उम्मीदों को भरोसे में बदलने के साथ-साथ दुबारा मुख्यमंत्री के पद पर बैठाने वाले पार्टी हाईकमान की नजरों में भी खरा उतरने की चुनौती है। सरकार के सामने पूरे पांच साल के कार्यकाल को देखते हुए इस बार उनके पास प्रदेश के विकास के लिए अधूरी योजनाओं को पूरा करने और नई परियोजनाओं पर काम करने का पूरा समय है। निवर्तमान सरकार के अपने छह माह के कार्यकाल में बतौर मुख्यमंत्री की गई दर्जनों घोषणाओं को जमीन पर उतारने के लिए भी धामी के पास बेहतर मौका है। इसके साथ ही उन्हें छह महीने के भीतर विधानसभा की सदस्यता भी हासिल करनी है। विधानसभा चुनाव में खटीमा से चुनाव लड़ते हुए वे इस बार हार गए थे। माना जा रहा है कि उपचुनाव में जीत दर्ज करने में मुख्यमंत्री धामी को कोई कठिनाई नहीं आएगी, हालांकि अभी ये तय होना बाकी है कि धामी किस सीट पर चुनाव में उतरेंगे। सभी 70 सीटों पर निर्वाचित जनप्रतिनिधि होने से भाजपा को पहले धामी को चुनाव लड़ाने के लिए एक सीट को रिक्त कराना होगा। भाजपा की कोशिश है कि विपक्षी दल कांग्रेस में सेंधमारी कर धामी के लिए सीट का इंतजाम किया जाए पर सुरक्षित सीट की तलाश में पार्टी की यह योजना परवान नहीं भी चढ सकती है, ऐसे में चंपावत या पिथौरागढ में किसी भाजपा विधायक को ही सीट रिक्त करने का फरमान जारी होने की ज्यादा संभावना है।

हकीकत तो ये है कि दो-तिहाई बहुमत के साथ सत्तारूढ हुई धामी सरकार की स्थिरता को लेकर कोई सवाल नहीं है, परन्तु सरकार को शुरू में ही जिस तरह से प्रदेश की नौकरशाही के तेवरों पर लगाम लगाने को मशक्कत करनी पड़ रही है, उससे आने वाले समय में सरकार के लक्ष्यों को समयबद्ध तरीके से पूरा करने के लिए नौकरशाही को साधना जरूरी हो गया है। मुख्यमंत्री ने ये साफ  भी कर दिया है कि प्रदेश की जनता को काम करने वाली गतिशील सरकार देने के लिए शासन-प्रशासन में किसी तरह की कोताई सहन नहीं की जाएगी। अप्रैल के पहले सप्ताह में सचिवालय में पीडब्ल्यूडी की निर्माणाधीन सड़क और पुल परियोजनाओं की समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री पुष्कर सिह धामी ने अफसरों को चेताते कहा कि राज्य के विकास और जनहित के कामों के लिए वे न तो खुद चैन से बैठेंगे और न अफसरों को बैठने देंगे। मुख्यमंत्री ने अतिक्रमण के खिलाफ  कड़ी कार्यवाही के भी संकेत दिए हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में उत्तराखंड में भी पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश की तरह अतिक्रमण को ध्वस्त करने के लिए क्रुद्ध हाथी की तरह बढ़ते बुल्डोजर को लेकर कई रोचक मिथक देखने को भी मिल सकते हैं।
मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही पुष्कर सिंह धामी ने भाजपा के चुनावी वायदे के मुताबिक समान नागरिकता संहिता निर्माण के लिए प्रयास शुरू करने का ऐलान किया है। इस मुद्दे को भाजपा के कोर लक्ष्यों में से एक माना जाता है। संहिता निर्माण के लिए मसौदा तैयार करना भी आसान नहीं होगा। राजनैतिक विरोध के साथ ही इसमें कई कानूनी उलझनें आ सकती हैं। उत्तराखंड में रोजगार बढोतरी की दिशा में कारगर तरीके से बढना सरकार के सामने मुश्किल चुनौती है। पढे-लिखे युवा बेरोजगारों की संख्या को देखते हुए सरकारी विभागों में चंद हजार पद भरने से ज्यादा राहत नहीं मिलने वाली, बल्कि साथ- साथ  निजी क्षेत्र में बेहतर संख्या में रोजगार सृजन जरूरी है। वर्ष २०१८ में देहरादून में हुए इन्वेस्टर्स समिट के लक्ष्य अभी भी अधूरे पड़े हैं। इस आयोजन की समीक्षा होनी जरूरी है, ताकि आगे के लिए निजी निवेश को बढाने की ठोस कार्यनीति निर्धारित की जा सके। विकास योजनाओं और पर्यावरण के नाजुक तालमेल से टिकाऊ विकास की अवधारणा को अमली जामा पहनाने के लिए श़रुआत भी करनी होगी। ज्ञान आधारित इंडस्ट्री की बातों को जमीन पर उतारना होगा। मैदानों और पहाड़ों के बीच विकास की खाई को पाटने की चुनौती है। राज्य के आर्थिक संसाधनों के विकास के साथ केन्द्र की परियोजनाओं के सफल क्रियान्वयन का सवाल है। इनके अलावा कई और भी मुद्दे राज्य के विकास और जनाकांक्षाओं से जुड़े हैं। साफ है कि नौकरशाही की प्रतिबद्धता, कुशलता, अनुशासन और जनता के प्रति उत्तरदायित्व की संवेदना के बिना सरकार अपने लक्ष्यों को नहीं पा सकती। पिछला अनुभव है कि नौकरशाही के सरकार पर हावी होने के परिणाम सरकार की अस्थिरता तक बढा सकते हैं। वर्ष 2017 में भारी बहुमत के साथ सत्ता में बैठी त्रिवेन्द्र रावत सरकार के बारे में कोई नहीं सोचता था कि चौथा साल पूरा होते-होते सरकार में भारी अस्थिरता आएगी पर सच्चाई यही है कि मुख्यमंत्री से उनकी पार्टी के विधायकों ने बगावती तेवर अपना लिए थे। इसका एक बड़़ा कारण यही बताया गया कि नौकरशाही विधायकों की बात को तवज्जो नहीं देती, जबकि विधायकों के सामने चुनाव में जाने से पहले विधानसभा क्षेत्र की जनता के सामने अपना रिपोर्ट कार्ड देना होता है। नाराज विधायकों ने आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री की कार्यशैली से अफशरशाही बेलगाम हो गई है, वह जनप्रतिनिधियों की बात ही नहीं सुनती। जाहिर है युवा मुख्यमंत्री धामी के सामने नौकरशाही को संवेदनशील बनाए रखने की चुनौती खड़ी रहेगी।
सरकार के पालने से बाहर आते ही गफलत
धामी सरकार के आरूढ होते ही उत्तराखंड में पहाड़ के चार डिपो बंद कर दिए जाने की खबर हवा की तरह फैल गई। यही नहीं बकायदा इस खबर की आधिकारिक रूप से भी पुष्टि हुई थी। दरअसल परिवहन निगम के कुछ अधिकारियों ने कह दिया था कि पहाड़ के 4 डिपो बंद कर दिए जाएंगे। सरकार की इस तरह की मंशा का कई जगहों पर विरोध हुआ। आनन-फानन में परिवहन मंत्री चंदन राम दास को खुद सामने आकर कहना पड़ा कि उत्तराखंड के किसी भी रोड़वेज डिपो को किसी भी हाल में बंद नहीं किया जाएगा। परिवहन मंत्री ने दावा किया कि उन्होंने रोडवेज के चार डिपो को बंद करने के फैसले पर रोक लगा दी है। फजीहत की स्थिति से खफा होकर परिवहन मंत्री ने कह दिया कि बगैर विश्वास में लिए किसी भी तरह का नीतिगत फैसला कदापि मान्य नहीं होगा। इस तरह की परिस्थितियां तभी आती हैं, जब जनादेश लेकर आई सरकार और स्थाई रूप से सरकार के मस्तिष्क की तरह काम करने वाली नौकरशाही के बीच संवाद की कमी हो। पहाड़ों में रोडवेज डिपो बंद करने का निर्णय जिम्मेदार अधिकारियों ने अपरिहार्य मानकर ही लिया, तब भी इसे सार्वजनिक करने से पहले तक विभागीय मंत्री को क्यों नहीं बताया गया? या मंत्री साहब की नींद ही प्रभावित जनता और विभाग के कर्मचारियों के विरोध के बाद टूटी? इस तरह की गफलत की वजह जो भी रही हो, परंतु ये सवाल मौजूं है कि जनता द्वारा चुने गए प्रशासकीय पदों पर बैठे जनप्रतिनिधियों को उनके मातहत काम करने वाले अधिकारी अंधेरे में रखकर प्रस्तावों को निर्णय में बदल डालेंगे तो आम लोगों की मांगों, आकांक्षाओं की सुनवाई कैसे संभव होगी।
धामी के मुख्यमंत्री पद संभालने के एक सप्ताह बाद ही स्वास्थ्य सचिव डॉ. पंकज पांडे के देहरादून राजकीय मेडिकल कॉलेज की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. निधि उनियाल के तत्काल सोबन सिंह जीना राजकीय आयुर्विज्ञान व शोध संस्थान, अल्मोड़ा में ज्वाइनिंग देने के आदेश ने भी काफी सुर्खियां बटोरी हैं।
दरअसल यह आदेश डॉ. निधि को स्वास्थ्य सचिव डा. पंकज पांडे की पत्नी से हुए विवाद के तुरन्त बाद जारी किया गया इसलिए इसके मायने दूसरे लगाए जा रहे हैं। इसे नौकरशाहों को प्रशासन चलाने को दी गई शक्ति के दुरुपयोग के तौर पर देखा गया है। इस मामले में ये जानना जरूरी है कि दून मेडिकल कालेज प्रशासन के दबाव के बाद ही ओपीडी में मरीजों को देखना छोड़ डॉ. निधि उनियाल स्वास्थ्य सचिव की पत्नी को आवास पर देखने गई। चेकअप करने के लिए साथ लाई बीपी मशीन को डॉक्टर वाहन में ही भूल गईं। सहायक कर्मी से मशीन लाने को कहा गया, पर इसके बाद स्वास्थ्य सचिव की पत्नी ने विवाद की शुरुआत कर दी। डॉ. का आरोप है कि उन्हें अपमानित किया गया। विवाद बढने पर डॉ. लौट आईं। कॉलेज प्रशासन ने हाई प्रोफाइल मामला देखते हुए डॉ. निधि से स्वास्थ्य सचिव की पत्नी से माफी मांगने को कहा, पर डॉ. ने मना कर दिया। इसके बाद कमाल तो ये हुआ कि स्वास्थ्य सचिव पंकज पांडे ने डॉ. निधि उनियाल को तत्काल सोबन सिंह जीना राजकीय आयुर्विज्ञान व शोध संस्थान, अल्मोड़ा ज्वाइन करने के आदेश जारी कर दिए। डाक्टर निधि उनियाल ने पद से इस्तीफा दे दिया। इस घटना के बाद चिकित्सकों में ही नहीं, बल्कि खबर से वाकिफ लोगों में भी रोष उत्पन्न हुआ। मुख्यमंत्री धामी को हस्तक्षेप करना पड़ा। डॉ. निधि के स्थानांतरण आदेश को रद्द किया गया और मुख्यमंत्री के निर्देश पर मुख्य सचिव ने मामले की जांच अपर मुख्य सचिव मनीषा पंवार को सौंप दी है। याद रहे कि नेशनल हाईवे-74 विस्तारीकरण के लिए अधिकृत की गई जमीन के मुआवजे मामले में निलंबित हुए डेढ दर्जन पीसीएस और राजस्व अधिकारियों के अलावा वर्ष २०१८ में आइएएस अधिकारी पंकज पांडे और चन्द्रेश यादव को भी निलंबित किया गया था। हालांकि उन्हें त्रिवेन्द्र रावत सरकार में ही २०१९ के आम चुनावों से पहले शासन में पुन: ज्वाइनिंग दे दी गई।
डॉ. निधि उनियाल व स्वास्थ्य सचिव की पत्नी के बीच हुए प्रकरण में जांच का परिणाम क्या होगा, कब तक यह जांच शासन के पास आएगी, यह अभी कहना मुश्किल है, क्योंकि यह एक सेवारत आइएएस से जुड़ा मामला भी है। बतौर स्वास्थ्य सचिव पंकज पांडे ने अगर अपनी पत्नी के साथ हुए विवाद में डॉ. निधि को सबक सिखाने के अंदाज में अपनी प्रशासनिक शक्ति का प्रयोग किया तो इसे सही कैसे माना जा सकता है। ऐसे में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को नौकरशाहों की मनमानी को लेकर सावधान रहना जरूरी है।
नौकरशाही को संवेदनशील बनाने की जरूरत
पिछली बार के अपने अल्प कार्यकाल के अनुभवों को मुख्यमंत्री धामी इस बार बेहतर प्रशासन चलाने के लिए पूंजी की तरह प्रयुक्त करने की दिशा में बढते हुए दिखाई देने लगे हैं। उन्होंने जन कल्याण और वित्तीय प्रबंधन के साथ ही प्रशासनिक कार्यकुशलता पर विशेष जोर देना आरंभ किया है। धामी सरकार के अनाथ बच्चों को सरकारी नौकरियों में पांच प्रतिशत आरक्षण के शासनादेश, पात्र पति पत्नी दोनों को वृद्धावस्था पेंशन की व्यवस्था को पुनर्बहाल करने के निर्णय को बेहतर समर्थन मिल रहा है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने देहरादून में भाजपा के स्थापना दिवस के कार्यक्रम में भी कहा कि उत्तराखंड की सरकार आम आदमी की सरकार बनेगी, उत्तराखंड सरकार सेवा का काम करेगी। सचिवालय में अधिकारियों की 4 अप्रैल की बैठक में मुख्यमंत्री ने अफसरों को ये कहते झिंझोड़ा कि वे अब पांच माह के सीएम नहीं हैं। बैठक में मुख्यमंत्री ने साफ  कहा कि लापरवाही बरतने वालों के खिलाफ  सख्त कार्रवाई होगी।
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी अप्रैल के पहले सप्ताह दिल्ली भी पहुंच गए, जहां उनकी मुलाकात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से हुई। उन्होंने पूंजीगत निवेश के लिए राज्यों को वित्तीय सहायता की योजनाÓ के तहत उत्तराखंड के लिए स्वीकृत किए गए 527 करोड़ रुपए अवमुक्त करने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का आभार व्यक्त किया। मुख्यमंत्री ने केंद्रीय गृह मंत्री से अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के जनपदों में हिम प्रहरी योजना लागू किए जाने में केंद्र से सहयोग का अनुरोध किया और साथ ही निर्भया फंड के तहत दिए गए 25 करोड़ रुपए के राज्य सरकार के प्रस्ताव को जल्द स्वीकृत किये जाने का भी अनुरोध किया। चुनावी वादों पर अमल की दिशा में 24 मार्च की पहली कैबिनेट बैठक में यूूनिफार्म सिविल कोड की दिशा में आगे बढने का फैसला महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इसके लिए न्यायविदों, सेवानिवृत्त जज, समाज के प्रबुद्धजनों और अन्य स्टेकहोल्डर की एक कमेटी गठित करने की भी बात की गई। यह कमेटी नागरिक संहिता का ड्राफ्ट तैयार करेगी। सरकार के कामकाज के एजेंडे पर अमल के लिए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के सामने चुनौती है। सरकार की तमाम चालू और भविष्यगत योजनाओं को जमीन तक पहुंचाने व उनके लिए आवश्यक वित्तीय प्रबंधन के लिए शासन में बैठे टॉप प्रशासनिक अधिकारियों को पूर्व तैयारियों से लेकर समयबद्ध कार्य निष्पादन के लिए प्रोत्साहित करना एक बड़ा काम है। नहीं तो नौकरशाही की रेंगने की आदतें गुड़ गोबर भी कर सकती हैं। वैसे भी देखा जाए तो भारत की नौकरशाही को लेकर कई तरह के मिश्रित अनुभव रहे हैं, पर सबसे ज्यादा निशाना उसमें निहित रेड टैपिज्म के कारण रहा है।
हांगकांग आधारित पॉलीटिकल एंड इकोनॉमिक रिस्क कंसल्टेंसी लिमिटेड की वर्ष 2012 की एक रिपोर्ट में भारतीय नौकरशाही को 10 में 9.21 रेटिंग देकर एशिया में सर्वाधिक बदतर बताया गया था। इस रिपोर्ट में वियतनाम 8.54, इंडोनेशिया 8.37, फिलीपीन 7.57 और चीन 7.11 से भी नीचे भारत को स्थान दिया गया था। रिपोर्ट में सिंगापुर की नौकरशाही को 2.25 अंकों के साथ सबसे बेहतर बताया गया। इसके बाद हांग कांग 3.53, थाईलैंड 5.25, ताईवान 5.57, जापान 5.77, दक्षिण कोरिया 5.87 और मलेशिया 5.89 को स्थान दिया गया। यूं तो रिपोर्ट के पूरे मसौदे से सहमति नहीं जताई जा सकती, क्योंकि इसमें ईज ऑफ  डूइंग बिजनेस के दृष्टिकोण से आने रही बाधाओं पर ही फोकस ज्यादा है, न कि कल्याणकारी राज्य की दृष्टि से, पर उसके बावजूद रिपोर्ट के उस भाग की आज भी प्रासंगिकता से इंकार नहीं कर सकते कि जिसमें कहा गया कि नौकरशाहों को गलत फैसलों के लिए जरूर जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। अब उत्तराखंड की हाल की अफसरशाही की घटनाओं और पिछली सरकार में सामने आए मंत्री और उनके मातहत अधिकारियों के विवादों और वर्तमान में धामी सरकार में कैबिनेट मंत्री सतपाल महाराज की विभागीय मंत्री को मातहत अधिकारियों की एसीआर लिखने का अधिकार देने की मांग को तीन अन्य कैबिनेट मंत्रियों प्रेमचंद अग्रवाल, सौरभ बहुगुणा, सुबोध उनियाल के मिले समर्थन की समान वजह से जोड़ कर देखा जाए, तब साफ  है कि सरकार किसी की भी हो, उत्तराखंड में नौकरशाही खूब फलती-फूलती रही है। पिछले कई मुख्यमंत्री खुद भी नौकरशाही से जूझते रहे।
यद्यपि एनडी तिवारी सरकार में विभागीय सचिवों की एसीआर विभागीय मंत्री द्वारा लिखे जाने के बाद अंतिम प्रविष्टि के लिए मुख्यमंत्री को भेजी जाती थी, पर 2008 में एक शासनादेश से इस प्रक्रिया को बदलकर विभागीय मंत्री को टिप्पणी लिखने तक सीमित कर दिया गया, पर व्यवहार में यह प्रकिया भी पालन नहीं होती है, क्योंकि वास्तव में फाइल मुख्य सचिव के माध्यम से सीधे मुख्यमंत्री को भेजी जाती है। इस तरह विभागीय मंत्री के पास जवाबदेही को लेकर मातहत नौकरशाहों को सचेत बनाए रखने का कारगर माध्यम नहीं रह गया है। लगता है इस बारे में आगे भी मंत्री जी विवशता में छटपटाते रहने को बाध्य हैं, क्योंकि मुख्यमंत्री धामी ने पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत की तरह उनकी मांग पर कोई कार्यवाही नहीं की है। राजनेताओं के साथ नीति निर्धारण से लेकर योजनाओं के क्रियान्वयन व मूल्यांकन में नौकरशाही की महत्वपूर्ण भूमिका असंदिग्ध है। राजनेता की मर्मज्ञता का क्षेत्र राजनीति है और प्रशासन चलाने की तकनीकी का क्षेत्र प्रशासनिक अधिकारी का है। यह एक अनुभवजन्य सच्चाई है कि नीति निर्धारण और निर्माण का कार्य बिना प्रशासन की सहायता के नहीं हो सकता, बल्कि कई बार प्रशासनिक अधिकारी ही राजनैतिक नेतृत्व को नीति निर्माण के लिए परामर्श देने के अलावा प्रोत्साहित करते हैं।
अब यह तो आने वाला समय बताएगा कि उत्तराखंड के युवा मुख्यमंत्री और उनकी कैबिनेट के साथी नौकरशाही को कितना साध पाएंगे। हालांकि काम-काज संभालते जुम्मा-जुम्मा चार दिन भी नहीं बीते कि नौकरशाही ने अपन कमाल दिखाना शुरू कर दिया है, पर उम्मीद है कि मौजूदा सरकार में ये घटनाएं अपवाद ही बनकर रह जाएंगी।

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