दून की रिस्पना-बिंदाल नदियों की हालत बदतर, करोड़ों की योजनाओं से अभी तक नहीं लौटा नदियों का जीवन

दून की रिस्पना-बिंदाल नदियों की हालत बदतर, करोड़ों की योजनाओं से अभी तक नहीं लौटा नदियों का जीवन

दून विनर/देहरादून।
धरती के अमृत पानी को साफ-सुथरा रखना सभी मनुष्यों की जिम्मेदारी है। यह प्रकृति प्रदत्त पदार्थ जीवन के लिए अनिवार्य अवयव है। मनुष्यों के साथ जीव-जन्तु और सभी वनस्पतियों के लिए पानी अनिवार्य है। प्राकृतिक तौर पर पीने योग्य और अन्य मानवीय गतिविधियों तथा सिंचाई के लिए उपलब्ध पानी की मात्रा कम होने से आधुनिक समय में दुनियाभर में जल संसाधन की हिफाजत और विवेकपूर्ण उपयोग बेहद जरूरी सवाल है। जाहिर है जब प्रपातों, तालाबों, जल वाहिकाओं, नदियों, भूजल और समुद्र की बात होती है तो इनकी सुरक्षा के लिए दीर्घकालिक और भविष्यदृष्टा योजना चाहिए, सामूहिक प्रयास, वित्तीय संसाधन और राजनैतिक इच्छा शक्ति चाहिए, इसलिए इनके जल और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी सरकारें हैं।
उत्तराखंड में देहरादून अच्छी आबो-हवा और आर्थिक संसाधनों की उपलब्धता की वजह से उत्तर भारत का एक प्रमुख शहर है। यहाँ की आबादी तेजी से बढ़ रही है, परंतु उस आबादी के लिए शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराना कठिनतर होता जा रहा है। यहांँ के प्राकृतिक जल के स्रोत समाप्त होते जा रहे हैं। रिस्पना और बिंदाल जो कभी साफ  पानी लिए बहती थीं, अब गंदे नालों के रूप में तब्दील हो चुकी हैं। सत्रहवीं सदी में रानी कर्णवती के शासनकाल में राजपुर नहर का निर्माण रिस्पना से पानी लेकर ही किया गया था। इसी रिस्पना को पूर्व में ऋषिपर्णा नाम दिया गया था। उसके बाद जब अंग्रेजों का ब्रिटिश गढवाल में शासन हुआ तो उन्होंने देहरादून में नहरें निकाल सिंचाई के साधनों का विकास किया। देश भर के पर्यटकों और प्रकृति प्रेमियों के लिए आकर्षण का केन्द्र बनी दून घाटी के हृदयस्थल देहरादून शहर के विकास के लिए आजादी के बाद दूरदर्शी योजना बनाकर काम करने की जरूरत थी, परन्तु उसमें काफी कोताही की गई, इसके विपरीत शहर की आबो-हवा बिगड़ती गई। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद से देहरादून शहर की आबादी का घनत्व काफी बढ गया है, पर्यटन काल में यातायात बुरी तरह चरमराने लगा है।
नदी-नालों-खालों पर अतिक्रमण बढ़ रहा है। शहर के भीतर से बहकर जाने वाली रिस्पना और बिंदाल नदियों का हश्र ये है कि उन्हें आज नदी कह कर संबोधित करना भी अविश्वसनीय लगता है। नदियों के दोनों किनारों पर अच्छे-खासे भवन, कार्यालय और सैकड़ों मलिन बस्तियाँ बस चुकी हैं।
उच्च न्यायालय के कतिपय निर्णयों के मुताबिक वैधानिक तौर पर ये बसावटें अवैध अतिक्रमण की श्रेणी में आती हैं, परन्तु उत्तराखंड की सरकारों ने स्थानीय नेताओं के दबाव में अवैध रूप से नदियों के किनारों पर किए गए अतिक्रमण को ही वैधानिक करने की नीति को मंजूरी दी है। खुद सरकार रिस्पना और बिंदाल के ऊपर एलीवेटेड रोड की योजना शुरू करने की तैयारी कर रही है। करीब 3400 करोड़ लागत की इस परियोजना में रिस्पना पर 11 किमी और बिंदाल पर 15 किमी लम्बाई की चार से छह लेन की एलीवेटेड रोड बनाई जाएगी। सघन आबादी के क्षेत्र में एलीवेटेड रोड यातायात व्यवस्था को सुधारने के लिए एक विकल्प माना जाता है जिसका उपयोग भारत के कई शहरों में किया जा रहा है। रिस्पना और बिंदाल पर एलीवेटेड रोड की योजना को जमीन पर उतारने के लिए नदियों के बीच और किनारों पर जो पिलर खड़े किए जाएँगे उसके बाद नदियों के खुले क्षेत्र में और भी कमी आएगी। अगल-बगल सटी बस्तियों में उथल-पुथल होगी। उनमें से कुछ मीटर के दायरे में बस्तियों को स्थानान्तरित भी करना पड़ेगा। उनके पुनस्र्थापना का मसला खड़ा होगा। निश्चित ही यह राजनैतिक मसला भी है जिस पर विरोध की आवाजें उठनी भी शुरू हो चुकी हैं।
शासन की हाल-फिलहाल की हलचल से ऐसा लगता है कि एलीवेटेड रोड की योजना सरकार की प्राथमिकता में है परन्तु रिस्पना और बिंदाल के पुनर्जीवन की बड़ी-बड़ी बातों को अंजाम तक पहुँचाने की कोई जल्दबाजी नहीं है। देहरादून में पर्यावरण संरक्षण के मुद्दों को उठाने वाली एक निजी संस्था ने रिस्पना और बिंदाल को हुई क्षति पर कई बार आवाज बुलंद की। मुख्यमंत्री बनने से पहले जब हरीश रावत यूपीए सरकार में मंत्री थे, उन्होंने नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ  हाइड्रोलोजी, रुड़की को रिस्पना और बिदाल के पुनर्जीवन की संभावनाओं को तलाशने के लिए सर्वेक्षण का निर्देश दिया था।
मुख्यमंत्री पद पर रहते हरीश रावत और उस वक्त के नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट दोनों ने नदियों को पुनर्जीवित करने पर एक सुर निकाले, परन्तु वास्तव में इस दिशा में जमीन पर कुछ किया नहीं। उसके बाद मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत बने उन्होंने रिस्पना और बिंदाल के पुनर्जीवन को प्रचार देकर उसमें जनभागीदारी के प्रयास किए परन्तु आज चार-पाँच वर्ष बाद भी अगर कोई रिस्पना और बिंदाल को देखे तो उसे यह मानने के लिए कोई साक्ष्य नहीं हैं कि नदियों के पुनर्जीवन के लिए कोई गंभीर प्रयास हुए हैं। वन विभाग और ईको टास्क फोर्स को नोडल एजेंसी बनाकर मई 2018 में रिस्पना के किनारे एक ही दिन में 2 लाख पौधे रोपने का दावा किया गया। स्पैक्स संस्था ने जनवरी 2018 में रिस्पना नदी के पानी के सैम्पल का विश्लेषण कर बताया कि पानी में टोटल कॉलीफार्म (विभिन्न हानिकारक तत्वों का मिश्रण) की मात्रा 76 गुना अधिक है। इससे पहले वर्ष 2010 में रिवर फ्रंट डेवलपमेंट परियोजना की कवायद भी शुरू हो चुकी थी। करोड़ों खर्च होने के बाद एमडीडीए की 750 करोड़ की लागत वाली रिवर फ्रंट डेवलपमेंट परियोजना भी आधी अधूरी पड़ी हुई है। रिवर फ्रंट परियोजना में दावे किए गए थे कि रिस्पना के 1.2 किमी और बिंदाल के 2.5 किमी क्षेत्र की शक्ल ही बदल दी जाएगी।
यह देखना जुगुप्सा और आश्चर्य दोनों को पैदा करने का कारण बन रहा है कि रिस्पना और बिंदाल को केन्द्र बनाकर कई योजनाएंँ चल रहीं हैं, जिनमें करोड़ों खर्च भी हो चुके हैं, लेकिन आज भी ये गंदे नाले बने हुए हैं।
आज के बिगड़ते पर्यावरण के जमाने में नदियों का पुनर्जीवन शब्द ही आकर्षण पैदा कर देता है, परन्तु इसके लिए जमीन पर तस्वीर बदलने से ही दावों की परख की जा सकती है। सरकार और प्रशासन रिस्पना और बिदाल की दशा को सुधारने के लिए गंभीर नहीं होते तो इस बारे में समय-समय पर व्यक्त किए गए संकल्पों की विश्वसनीयता पर सवाल तो उठेंगे ही।
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