बाईस साल के बाद भी क्या भाग्य-विधाताओं को आत्म-आलोचना की जरूरत नहीं? 

बाईस साल के बाद भी क्या भाग्य-विधाताओं को आत्म-आलोचना की जरूरत नहीं? 

विनोद खंडूड़ी/ देहरादून।
उत्तराखंड देश का सर्वश्रेष्ठ राज्य बनकर उभरे और भारत की विकास यात्रा में मजबूत पाया बनकर सामने आए ये हर उत्तराखंडवासी चाहता है, परन्तु सरकार जिस तरह से बड़े सपने दिखाती है और जमीन पर उसके मुकाबले बहुत कम काम करती है, वह हैरत में डालने वाला है, और विरोधाभासी स्थिति ये है कि सरकार के तीव्र विकास के दावों की पोल सरकार के ही आँकड़े खोल देते हैं। 
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने पिछले दिनों, 2 अक्टूबर को रामपुर तिराहे के शहीद स्थल पर उत्तराखंड राज्य आंदोलन के शहीदों को याद करते हुए कहा कि सरकार शहीदों के स्वप्नों के उत्तराखंड का निर्माण करने के लिए संकल्पबद्ध है।
मुख्यमंत्री ने मुजफ्फरनगर जिले के रामपुर तिराहे पर हुए कांड को उत्तराखंड राज्य आंदोलन के इतिहास में एक काला धब्बा बताया। रामपुर तिराहा हो या देहरादून का कचहरी स्थित शहीद स्थल अथवा मसूरी और खटीमा के शहीद स्थल ये सभी उत्तराखंड राज्य आंदोलन में सत्ता के विरुद्ध संघर्ष और बलिदान की याद दिलाते हैं। हर साल उत्तराखंड की सत्ता में बैठे लोग शहीदों के देखे स्वप्नों को अमली जामा पहनाने की बातें किया करते हैं, परन्तु राज्य गठन के 22 साल में उत्तराखंड राज्य की अवधारणा के पृष्ठ में मौजूद तुलनात्मक पिछड़ापन दूर करने की चाहत और जल,जंगल, जमीन पर स्थानीय निवासियों के हक-हकूक की बहाली के मुद्दे जैसे भुला दिए गए हैं। अब एक ही शोर सुनाई देता है कि उत्तराखंड को सर्वश्रेष्ठ राज्य बनाएंगे। बहुश्रुत मीडिया पर नजर डालें तो वह इसी तरह की रंगीन सामग्री लोगों को परोसने पर लगा है। इसी सर्वश्रेष्ठ राज्य बनाने के लिए 2017 और फिर 2022 में भाजपा ने वोट मांगा और दोनों बार मतदाताओं ने उन्हें निराश नहीं किया, बल्कि जबर्दस्त बहुमत से डबल इंजन की सरकार बनाने का मौका दिया।
उत्तराखंड राज्य गठन के एक और दिवस के उल्लास के बीच, खासकर राज्य आंदोलनकारियों के जख्मों को भी सहलाने की जरूरत है, जिन्होंने 1994 के रामपुर तिराहा, खटीमा, मसूरी में हुए खूनी कांडों को अपनी आंखों के सामने देखा था। 2 अक्टूबर, 1994 को दिल्ली में उत्तराखंड राज्य निर्माण की मांग को लेकर आयोजित की गई रैली में शामिल होने के उद्देश्य से दिल्ली जाते हुए राज्य आंदोलनकारियों पर रामपुर तिराहा में पुलिस और सादी वर्दी में मौजूद कुछ लोगों ने बर्बर हिंसा ढहाई थी। इसमें कुछ आंदोलनकारी हमेशा के लिए इस दुनिया से विदा हुए, महिलाओं का यौन उत्पीडऩ किया गया। जब यह हिंसात्मक घटना घटी तब उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के सहयोग से सत्ता में बैठी हुई सपा सरकार के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव थे। सपा और बसपा का यह एका 2 जून 1995 के लखनऊ स्थित राज्य अथिति गृह कांड से पूरी तरह बिखर गया जिसमें आरोप है कि सपा के विधायकों और समर्थकों की उन्मादी भीड़ ने अथिति गृह के भीतर मुलायम सरकार से समर्थन वापसी के बाद की रणनीति के लिए बैठक करते बसपा विधायकों व पदाधिकारियों पर हमला बोल दिया था, जिसमें बसपा सुप्रीमो मायावती को भी बड़ी मुश्किल से बचाया जा सका था। लखनऊ में बैठी इसी सत्ता ने रामपुर तिराहा कांड के जिम्मेदार लोगों को सलाखों के पीछे पहुंचाने के लिए कभी प्रयास नहीं किया, इसीलिए आरोप लगता है कि रामपुर तिराहा कांड लखनऊ की राजनैतिक सत्ता की छत्रछाया के बिना नहीं हो सकता। अफसोस की बात ये है कि उसके बाद भी उत्तर प्रदेश की सत्ता में आई भाजपा, बसपा और सपा की सरकारों ने रामपुर तिराहा कांड के दोषियों को न्याय के कटघरे में लाने के लिए इच्छा शक्ति नहीं दिखाई। पिछले छह सालों से स्थिति ऐसी है कि उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और केन्द्र में तीनों स्तरों पर भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकारें हैं यानी एक ही दल की सरकारें, ट्रिपल इंजन की ताकत, परन्तु मुजफ्फरनगर कांड के अपराधियों की पहचान कर उन्हें सजा दिलाने की फिर भी कोई कवायद होती नहीं दिखाई दी है।
गौरतलब है कि सन् 1994 में 1 अक्टूबर की अद्र्धरात्रि के बाद और अहिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्म दिन 2 अक्टूबर के आगाश के कुछ घंटों के भीतर दिल्ली जाते उत्तराखंड राज्य निर्माण की मांग करते आंदोलनकारियों पर रामपुर तिराहे में ढाए गए जुल्मों सितम की आज बात नहीं होती। उत्तराखंड आंदोलन में कलंक के रूप में देखे जाने वाले रामपुर तिराहा गोलीकांड के पीडितों के लिए इंसाफ  की लड़ाई अधूरी है। इस मामले में आरोपी बनाए गए तत्कालीन मुजफ्फरनगर डीएम अनंत कुमार सिंह के खिलाफ  कोई कार्रवाई इसलिए नहीं हो पाई, क्योंकि वे प्रशासनिक व्यवस्था में वरिष्ठ पदों पर बने रहे। उन पर भाजपा के एक बड़े नेता की तो हमेशा कृपा बनी रही। अब अनंत कुमार सिंह सेवानिवृत्त हो चुके हैं, तो उनके खिलाफ  एक मजबूत कानूनी लड़ाई लडऩे के लिए आंदोलनकारियों के साथ कानूनी विशेषज्ञ भी खड़े हुए हैं। सीबीआइ ने इस मामले में 71 केस में चार्जशीट विशेष अदालत में दाखिल की है। इनमें से कई केस गैंगरेप और महिलाओं के शोषण से जुड़े हुए हैं। उत्तराखंड सरकार की ओर से मुजफ्फरनगर में रामपुर तिराहा गोलीकांड के मुकदमों में एक प्रभावी और मजबूत पैरवी करने की जरूरत है। इस आलेख में पाठकों के सम्मुख यह रखने की कोशिश की गई है कि उत्तराखंड राज्य गठन के 22 सालों में प्रदेश की सत्ता में मुख्यमंत्री के पद पर एक से एक दिग्गज, विजन के दस्तावेज लेकर विराजमान हुए और जिसमें उत्तराखंड के लोगों के लिए स्वप्नों का मखमली खाका भी दिखाया गया किन्तु कभी इस बात पर बहस या आत्म आलोचना नहीं हो सकी कि उत्तराखंड की तरक्की की पड़ताल निरपेक्ष नहीं बल्कि सापेक्ष ही हो सकती है और इस मायने में देश के अव्वल माने जाने वाले कई राज्य उत्तराखंड से तेज दौड़ रहे हैं, जबकि उत्तराखंड में बुनियादी काम ही अधूरे पड़े हुए हैं।
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