ओम प्रकाश उनियाल/देहरादून। भारतभूमि विश्व की ऐसी भूमि है जहां की संस्कृति विविधता में एकता वाली है। हर धर्म औ र जाति के लोग यहां वास करते हैं। इसी कारण हर संस्कृति के रंग यहां देखने को मिलेंगे। जब भी त्योहार आते हैं तो चाहे अमीर हो या गरीब अपनी-अपनी सामर्थ्यानुसार मनाते हैं।
लेकिन अक्सर कुछेक त्योहार इस प्रकार से मनाए जाते हैं कि जिनमें दिखावा, बनावटीपन, फिजूलखर्ची, फूहड़पन, कुप्रथा, अंधविश्वास की बू आती है। जिससे त्योहार का वास्तविक स्वरुप खत्म हो जाता है तथा आनंद नीरस हो जाता है। त्योहार तो आपस में खुशियां बांटने, अपनी लोक संस्कृति को जीवंत रखने के लिए मनाए जाते हैं।
दीपावली, होली जैसे त्योहार तो ज्यादातर लोग बहुत ही फूहड़ता एवं उच्छृंखलता से मनाते हैं। दीपावली में अंधाधुंध आतिशबाजी कर जहां फिजूलखर्ची की जाती है वहीं पर्यावरण को दूषित किया जाता है। यही नहीं आग लगने व लोगों के पटाखों से जलने की घटनाएं भी बहुत घटती हैं। आतिशबाजी से हवा जहरीली हो जाती है, जिसका दुष्प्रभाव इंसान के साथ-साथ अन्य प्रणियों पर भी पड़ता है। इसके अलावा पटाखों की आवाज से जो ध्वनि-प्रदूषण होता है वह भी खतरनाक होता है। कई लोग तो इस दिन जुआ तक खेलते हैं। इसी प्रकार होली का त्योहार है जिसमें तो फूहड़ता ज्यादा देखने को मिलती है। नशा करके लड़ाई-झगड़ा करना, बेहूदगी से रंग खेलना, जानवरों पर रंग फेंकना जैसी उल्टी-सीधी हरकतें करते हैं।
त्योहार तो शांति, संजीदगी और मर्यादा में रहकर मनाए जाएं तो उससे अंतरात्मा को सुकून मिलता है।