दून विनर संवाददाता/ देहरादून
पिछले दो दशकों में उत्तराखंड के पर्वतीय कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा का विस्तार जरूर हुआ पर इसकी मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों तरह की कमजोरियों ने इसे उतना उपयोगी कतई नहीं बनाया जिसकी कल्पना राज्य आंदोलन के दौरान की गई थी।
उत्तराखंड के 13 जिलों में 1847 स्वास्थ्य उपकेन्द्र, 295 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, 68 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र, 19 सब डिविजनल अस्पताल और 13 जिला अस्पताल हैं। इनमें पर्वतीय क्षेत्र व सुदूर ग्रामीण इलाकों में डॉक्टर और पैरामेडिकल कर्मियों की बड़ी कमी बनी हुई है। प्रसव के समय और हृदयाघात व ब्रैन हेमरेज जैसी इमरजेंसी हालत में समय पर चिकित्सा सहायता नहीं मिलने का परिणाम कितना घातक हो सकता है, ये किसी को बताने की जरूरत नहीं है। हैरत की बात है कि चुनावों में यह मुद्दा ही नहीं बन पाया और ना ही इस बारे में चुनावी मेनीफैस्टो में किए गए वादों पर पांच साल में सरकार द्वारा किए गए अमल पर चर्चा हुई।
स्वास्थ्य के क्षेत्र की इस लुंजपुंज हालत को बदलने के लिए राजनैतिक नेतृत्व की भूमिका अहम है, हालांकि वर्ष 2017 में सत्ता परिवर्तन के बाद गठित सरकार ने पिछले पांच सालों में पर्वतीय क्षेत्रों सहित राज्य के शेष भाग के ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवा सुधारने के दावे जरूर किए पर जमीन पर कहीं परिवर्तन नहीं नजर आया है।
केन्द्र सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के रूरल हेल्थ स्टेटिस्टिक्स 2019-20 की रिपोर्ट भी उत्तराखंड की स्वास्थ्य व्यवस्था में मुख्य कमजोरी को सामने रख रही है। भारत सरकार की 31 मार्च 2020 की स्थिति बता रही आरएचएस 2019-20 में दर्ज है कि उत्तराखंड में उप स्वास्थ्य केन्द्रों (एससी) व प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों(पीएचसी) में महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता या एएनएम के 2005 में 174 पद रिक्त थे पर 2020 में 197 पद खाली पड़े थे। पीएचसी में चिकित्सकों के 2005 में 90 पद खाली पड़े थे वहीं 2020 में भी 130 पद रिक्त थे। सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों(सीएचसी) में विशेषज्ञों के कुल स्वीकृत पदों में 2005 में 90 पद रिक्त थे जबकि 2020 में 204 पदों पर नियुक्ति नहीं थी। पीएचसी व सीएचसी में नर्सिंग स्टाफ के 2005 में 16 पद रिक्त थे पर 2020 में खाली पदों की संख्या 149 हो गई। लैब तकनिशियन के पीएचसी और सीएचसी में 2005 में कुल 58 पद भरे नहीं गए थे जबकि 2020 में 75 पद रिक्त थे। रेडियोग्राफर के सीएचसी में 2005 में 10 पद रिक्त थे पर वहीं 2020 में भी 13 पदों पर नियुक्ति नहीं थी। फार्मासिस्ट के पीएचसी व सीएचसी में 2005 में 12 पद रिक्त थे वहीं 2020 में 8 पद रिक्त पड़े थे। जाहिर है ग्रामीण उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवा के विस्तार के क्रम में 15 सालों की तस्वीर कहती है कि मानव संसाधन की काफी कमी बनी हुई है परन्तु आरएचएस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2005 से वर्ष 2020 के दौरान देश के एससी, पीएचसी व सीएचसी की संख्या में उल्लेखनीय बढोतरी वाले राज्यों में भी उत्तराखंड शामिल नहीं है।
विडंबना ये है कि एक तरफ पद खाली पड़े रहते हैं वहीं दूसरी तरफ यहां के मानव संसाधन का रोजगार के लिए, स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच के लिए पलायन भी निरंतर हो रहा है। आरएचएस के मार्च 2008 के बुलेटिन में जन स्वास्थ्य संकेतकों और अवसंरचना की दयनीय हालत वाले 18 राज्यों में भी उत्तराखंड को शामिल किया गया था।