उत्तराखंड में देश के अन्य चार राज्यों के साथ सन्निकट आ चुके विधानसभा चुनावों के लिए पक्ष-विपक्ष में बैठे राजनीतिक दलों ने चुनाव के संभावित असरकारक मुद्दों को अपने-अपने ढंग से धार देनी शुरू कर दी है और इस बार आम आदमी का जीना दूभर कर रही दैनिक जरूरी और उपयोगी वस्तुओं की ऊँची कीमतों पर खासकर उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस में महासंग्राम के पूरे आसार हैं।
विनोद खंडूड़ी/ देहरादून
अगले साल की पहली तिमाही में देश में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं। जीत का परचम लहराने के इरादे से चुनाव मैदान में उतरने के लिए राजनैतिक दलों ने कमर कसना शुरू कर दिया है। यूपी और पंजाब के बाद विधानसभा सीटों की दृष्टि से चुनाव के मुहाने पर खड़े इन पांच राज्यों में उत्तराखंड का क्रम तीसरा है, जहां कुल 70 विधानसभा सीटों पर चुनाव होना है और एक सीट पर एग्लो-इंडियन समुदाय के व्यक्ति को मनोनीत किया जाता है। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 46 प्रतिशत से भी ज्यादा मत हासिल कर कुल 57 सीटों पर भारी जीत के साथ सरकार बनाई।
इससे पूर्व नए राज्य में वर्ष 2002 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को ३६ सीटों पर जीत के साथ बहुमत मिला पर उसके बाद वर्ष 2007 व वर्ष 2012 के विधानसभा चुनावों में किसी एक दल को बहुमत नहीं मिल सका। वर्ष 2017 के चुनाव में भाजपा ने रिकॉर्ड सीटों पर जीत के साथ इस सिलसिले को तोड़ा। ऐसे में इस बार भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती पिछले प्रदर्शन को दोहराते हुए यह साबित करने की है कि उसकी नीतियों और निर्णयों से जनता कमोबेश सहमत है। भाजपा सत्ता के हर पांच साल में बदलने वाले पिछले सिलसिले को भी तोडऩा चाहती है। अपने कार्यकर्ताओं के मनोबल को ऊंचा बनाए रखने के लिए भाजपा ‘इस बार 60 पार’ का बेहद महत्वाकांक्षी नारा दे रही है।
जमीनी हकीकत ये है कि बेरोजगारी के साथ बेतहाशा रूप से बढी महंगाई आम आदमी के जीवन को दूभर कर रही है, इससे घरेलू तनाव और हिंसा बढऩे के साथ ही सामाजिक तनाव बढने के भी खतरे वास्तविक तौर पर समाज के सम्मुख मौजूद हैं। हालांकि अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि चुनावों का बिगुल बजने के बाद चुनाव प्रचार के दौरान मतदाताओं को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले मुद्दे कौन से होंगे पर इस बात की काफी संभावना है कि उत्तराखंड में बेरोजगारी, पहाड़ों से पलायन, जमीनों की बढती खरीद-फरोख्त, जंगली जानवरों की समस्या, सरकारी शिक्षा व स्वास्थ्य व्यवस्था की खराब दशा, जल विद्युत परियोजनाओं से प्रदेश को सामान्य से ज्यादा हानि और अपेक्षा से काफी कम लाभ और अवैध खनन राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों के लिए मुफीद मुद्दे होंगे और इन मुद्दों पर उत्तराखंड में 21 सालों के दौरान सत्तारूढ रहे दलों का एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का चिर-परिचित खेल भी देखने को मिलेगा, पर महंगाई एक ऐसा ज्वलंत मुद्दा है, जिस पर सत्तारूढ़ दल भाजपा के लिए विपक्षी दलों के आरोपों की काट ढूंढनी आसान नहीं होगी।
दैनिक तौर पर सामान्य घरों में उपयोग में आने वाली अधिकांश वस्तुओं के दामों में तीव्र बढोतरी की वजह से सीधे आम आदमी को चोट लग रही है, गृहणियों के लिए किचन में आवश्यक खाद्य वस्तुओं की मात्रा में भी कटौती पर कटौती करना मजबूरी हो गई है, खाने की थाली से चीजें गायब हो रही हैं। मुक्त बाजार इकोनोमी में फिलहाल लाइलाज से होते महंगाई के मर्ज का फौरन इलाज ढूंढना जरूरी है।
सच तो यह है कि महंगाई की इस विषम हालत में अपनी आलोचना से भाजपा अंदर से डरी हुई है। उसने बचाव से बेहतर विपक्षी दलों पर प्रत्याक्रमण करने का इरादा जताया है। प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक कहते हैं कि महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ और पंजाब जैसे विपक्षी दल शासित राज्यों में महंगाई के आंकड़े चुनाव में बताए जाएंगे। उन्होंने कहा कि हम जनता को तुलनात्मक चार्ट द्वारा बताएंगे कि कांगे्रस की सरकारें महंगाई नियंत्रित करने में नाकामयाब हैं। उनके मुकाबले भाजपा की सरकारों के महंगाई से जनता को राहत देने के कार्यों को सामने रखा जाएगा।
हकीकत में महंगाई देश में करोड़ों लोगों के जीवन स्तर को पीछे की ओर धकेलने वाली बला है। सच्चाई ये भी है कि राज्य के साथ ही केन्द्र में भी सत्तारूढ दल भाजपा के नेताओं को भी आम आदमी के भीतर महंगाई को लेकर पैदा हो रही छटपटाहट का भान है, इसीलिए चुनावों को देखते हुए भाजपा-आरएसएस सहित उनके अन्य सहयोगी संगठन एक बार फि र आक्रामक राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व की भाषा का प्रयोग बढाने लगे हैं।
दूसरी ओर पार्टी के कई कार्यकर्ता अनौपचारिक बातचीत में अंदेशा जताते हैं कि आम आदमी को असर कर रही महंगाई की चुभन में पिछली सरकारों के जमाने में भी महंगाई की मार के तर्क प्रभावित पक्ष को कितना जंच पाएगा, आज यह अंदाज लगाना कठिन है।