…केन्द्र की वृद्धावस्था पेंशन बराबर एक किलो सरसों तेल की कीमत!

…केन्द्र की वृद्धावस्था पेंशन बराबर एक किलो सरसों तेल की कीमत!

दून विनर/देहरादून 
ये एक कड़वी सच्चाई है कि गरीबी रेखा से नीचे के लोग पहले से ही दो वक्त की रोटी के इंतजाम के लिए अपनी सारी ऊर्जा लगाने को मजबूर रहे हैं, पर वर्तमान हालात में खाने-पीने की वस्तुओं से लेकर किराए-भाड़े की महंगाई ने निम्न मध्यम वर्ग पर भी भारी बोझ डाला है। अच्छे दिनों के ख्वाब देखते अब उनके कंधे भी महंगाई के वजन से बुरी तरह चरमराने लगे हैं।
रोजमर्रा की चीजों में आलू, गोभी, मटर, बीन्स, टमाटर, प्याज, मूली, गाजर, मशरूम, अरहर, मल्का, उड़द, मसाले, बिस्किट के दाम काफी ऊंचे बने हुए हैं। टमाटर 60 पार करने के बाद 80-90 तक जा पहुंचा है। आलू और प्याज ने पिछले साल भी खूब रुलाया इसलिए आंकड़ों के लिहाज से इस बार इनके दामों में कमी है पर नवंबर खत्म होने के बाद दिसम्बर शुरू होने पर भी  चौतरफा महंगी सब्जियों से आंकड़ों में दिखने वाली आलू, प्याज की यह तुलनात्मक राहत भी गायब हो चुकी है। सब्जियों में बहुतायत प्रयोग होने वाले आलू 25-35 रु. प्रति किलो और प्याज 35-50 रु. प्रति किलो बिक रहा है।
ये सच है कि मांग और आपूर्ति के दो ध्रुवों के बीच चल रहे बाजार में साल में कभी कुछ  सब्जियों के दाम कई कारणों से मांग और आपूर्ति के सामान्य संतुलन के डगमगाने से गिरते-उठते रहते हैं, पर इसमें लंबे समय तक उछाल की हालत में बाजार को नियंत्रित करने की केन्द्र और राज्य की अपनी जिम्मेदारियों से हाथ झाडऩे का सवाल है। सरकारों के तमाशबीन बने रहने के रवैए से सबसे ज्यादा मार आर्थिक तौर पर बीपीएल और बीपीएल से कुछ ऊपर के वर्ग में रह रहे लोगों पर पड़ रही है।
हाल ही में जारी नीति आयोग की नेशनल मल्टी डाइमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स-2021 में बताया गया है कि एनएफएचएस-4, 2015-16 के आधार पर  उत्तराखंड में व्यक्तियों की संख्या के हिसाब से 17.72 प्रतिशत गरीबी है। देश के 13 राज्य उत्तराखंड से बेहतर हालत में है जिनमें केरल में सबसे कम 2.71 प्रतिशत गरीबी है। एमपीआइ के संकेतकों में से एक पोषक तत्वों के मामले में भी उत्तराखंड से बेहतर देश के 14 राज्यों की स्थिति है। कुपोषण या अल्पषोषण की स्थिति जानने के लिए 15 से 49 साल के आयु वर्ग के बीच की महिलाओं और 15 से 54 साल के आयु वर्ग के मध्य के पुरुषों के बॉडी मास इंडेक्स और 5 साल से कम आयु के बच्चों की आयु के साथ लंबाई और वजन के  संबंध को लेकर गणना की जाती है। मानक के अनुसार 18.5 किग्रा प्रति वर्ग मीटर से कम बॉडी मास इंडेक्स को कुपोषित में गिना गया है।
नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड में 32.85 प्रतिशत कुपोषित हैं। गौरतलब है कि एमपीआइ रिपोर्ट 2021 के लिए उपयोग में लाए गए आंकड़ों के आधार वर्ष के बाद 5 साल का समय पूरा हो चुका है, पर इस दौरान सुधार की दिशा में बड़ा परिवर्तन संभावित नहीं है, उल्टा अर्थव्यवस्था में आए संकुचन और बेरोजगारी ने गरीबी और कुपोषण को कम करने की दिशा में मिली कुछ सफलताओं को पिछले दो सालों में बड़ा धक्का पहुंचाया है। हालांकि कोरोना की पहली लहर के बाद केन्द्र सरकार की ओर से प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना में प्रति यूनिट 5 किलो अतिरिक्त राशन फ्री दिया जा रहा है। राज्य सरकार के अनुसार इस योजना के अंतर्गत कुल 61.94 लाख लाभार्थी हैं। सही तरह वितरण होने पर इसको भुखमरी से बचाने के लिए असरदार तो कहा जा सकता है, पर सवाल ये भी है कि एक गरीब परिवार के लिए न्यूनतम गुणवत्ता की भोजन की थाली इतने भर से कैसे आएगी। इसमें भी हकीकत ये है कि एक तरफ  फ्री राशन योजना लागू की गई दूसरी ओर उसी कीचन में अनिवार्यत: उपयोग होने वाले घरेलू ईंधन के दाम लगातार बढाए गए। उपभोक्ता को नवंबर माह में देहरादून में इंडियन ऑयल कम्पनी का 14.2 किग्रा एलपीजी गैस सिलेडर 919 रुपए में घर में मिल रहा है। सब्सिडी युक्त इस गैस सिलेंडर में पिछले साल जून से ही सब्सिडी कम की गई जो दाम बढोतरी होने के बाद भी मात्र 16.72 रुपए ही रही और एक साल बाद इस सब्सिडी का भी पता नहीं है। उज्ज्वला योजना के लाभार्थियों की सुध लेने वाला अब कोई नहीं है।
अर्थव्यवस्था में वित्तीय वर्ष 2016-17 से आए सुस्ती के रुझानों के बीच जीडीपी वृद्धि दर वित्तीय वर्ष 2019-20 (यानी कोरोना के असली असर वाले साल से पहले) में 4.4 प्रतिशत पर आ गई थी, जबकि वित्तीय वर्ष 2020-21 में जीडीपी में 7.7 प्रतिशत का संकुचन रहा। कोरोना लॉकडाउन के दुष्प्रभाव से काम-धंधे खत्म या सुस्त होने पर देश में बढी बेरोजगारी या कर्मकारों की घटी आय ने मध्यम वर्ग के एक बड़े भाग को भी बड़ी चोट पहुंचाई है। स्कूलों व हॉस्टल की बढी हुई फीस, व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के महंगे होने, पेट्रोल के दामों में भारी बढोतरी, होटल, रेस्टोरेन्ट की महंगाई, दवा-दारू के दामों में बढोतरी के  असर ने बड़े मध्यवर्ग को अपने घेरे में ले लिया है।
एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट -2021 में बताया गया है कि 6 से 14 साल के बच्चों के मामले में 2018 के मुकाबले 2021 में निजी स्कूलों में ८ प्रतिशत की गिरावट आई। 15-16 आयु वर्ग के बच्चों का सरकारी स्कूलों में अनुपात इसी काल में 10 फीसदी बढा । जाहिर है कि कोरोना के असर के चलते आय में कमी या नौकरी छूटने पर कई लोगों द्वारा बच्चों को निजी स्कूलों के बजाय सरकारी स्कूलों में भर्ती करना इसकी एक बड़ी वजह है। यह बेरोजगारी के चलते मध्यम वर्ग के उस बड़े हिस्से की हालत को बयां करता है जो सरकारी स्कूलों के बजाय पेट काटकर भी निजी स्कूलों में बच्चों को पढाने की सोच रखता है, पर बदली हालत में अनिवार्य चीजों की पूर्ति के लिए उसे अपने बच्चों की शिक्षा के खर्च में कटौती करने को विवश होना पड़ रहा है।
बीपीएल श्रेणी के आगे आ रही मुश्किलों का तो अंदाजा ही लगाया जा सकता है। महंगाई ने उसकी गृहस्थी में खलल पैदा कर दी है। हर घर में खाने में प्रयोग होने वाला सरसों का तेल 180-200 रुपए प्रति किग्रा बिक रहा है। हैरत में डालने वाला तथ्य ये है कि यह राशि केन्द्र की वृद्धावस्था पेंशन की मासिक राशि के बराबर है।
गौरतलब है कि केन्द्र सरकार इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना के तहत 60 वर्ष और उससे ऊपर की आयु के नामांकित पात्र बीपीएल लोगों को 200 रुपए हर माह देता है। पहले की केन्द्र सरकारों की कई योजनाओं को विदा करने या उनमें तोड़-मरोड़ करने वाली केन्द्र की मोदी सरकार ने वृद्धावस्था पेंशन राशि में कोई बढोतरी नहीं की। आज एक माह की पेंशन से एक किलोग्राम सरसों का तेल मिल रहा है। हालांकि राज्य सरकारों ने इस राशि में अपने खजाने से राशि जोड़कर वृद्धावस्था मासिक पेंशन की राशि को अलग-अलग राज्यों में 500 रुपए से लेकर 2500 रुपए तक पहुंचाया है, पर ये एक कटु सत्य है कि केन्द्र सरकार देश के बीपीएल श्रेणी के वृद्धों को 200 रुपए मासिक पेंशन दे रही है, 80 और 80 साल से ऊपर की आयु में यह राशि 500 रुपए निर्धारित की गई है।
उत्तराखंड में इस वक्त वृद्धावस्था पेंशन राशि 1200 रुपए मासिक है, पंजाब में 1500 रुपए और यूपी में योगी सरकार मात्र 500 रुपए वृद्धजनों को बतौर ओल्ड एज पेंशन दे रही है। याद रहे कि इन पेंशन राशियों में 200 रुपए केन्द्रांश है, जबकि 80 साल से ऊपर के बीपीएल वृद्धजनों के लिए केन्द्रांश 500 रुपए मासिक है। हालत ये है कि सर्वशक्तिमान केन्द्र की सरकार देश में सामाजिक सुरक्षा के तहत असहाय और गरीब वृद्धजनों को पेंशन के रूप में केवल 200 रुपए दे रही है। यह एक तरह का मजाक नहीं तो क्या है? कहां तो कुछ संगठनों, राजनैतिक दलों और अर्थशास्त्रियों की ओर से सार्वभौमिक वृद्धावस्था पेंशन योजना शुरू कर न्यूनतम 3 हजार रुपए मासिक पेंशन की मांग की जा रही है और कहां सीमित तौर पर आज भी वृद्धावस्था पेंशन के नाम पर केन्द्र सरकार की 200 रुपए की राशि।
गौरतलब है कि कोरोना के दुष्प्रभाव से जनता की आर्थिक मुश्किलों को दूर करने के लिए केन्द्र सरकार अपनी आर्थिक क्षमता के चलते राज्यों से कई बढकर सहायता कार्य कर सकती है। इसकी वास्तविकता समझने के लिए पेट्रोलियम उत्पादों पर लगाए जा रहे कर राजस्व के केन्द्र और राज्यों के बीच वितरण का उदाहरण बेहतरीन वास्तविकता है। पेट्रोलियम उत्पादों पर लगाए जा रहे उच्चतर दरों के करों से केन्द्र सरकार को वित्तीय वर्ष 2020-21 में करीब 3.72 लाख करोड़ राजस्व मिला। ये आंकड़े पेट्रोलियम प्लानिंग एंड एनालेसिस सैल ने जारी किए हैं। इस राजस्व में से करीब 18 हजार करोड़ रुपए ही बुनियादी उत्पाद शुल्क के रूप में संग्रह किए गए। इसका ४१ प्रतिशत भाग  ही विभाज्य पूल के जरिए राज्यों के पास जाता है। बाकी 2.3 लाख करोड़ सैस के मद में और करीब 1.2 लाख करोड़ स्पेशल एडीशनल एक्साइज ड्यूटी के तौर पर वसूले गए। इन करों का कोई भाग राज्यों के पास नहीं जाता। यह स्थिति संघीय ढांचे को कमजोर करती है। जीएसटी लागू होने के बाद राज्य सरकारों के हाथ में पेट्रोल, डीजल, शराब पर कर लगाकर राजस्व संग्रह बढाने का एक तरीका रह गया है पर जब पेट्रोलियम उत्पाद पर केन्द्र ही उच्चतर दर से कर वसूलने लगे तब राज्यों को और कर लगाना संभव नहीं है। कर संग्रह के साधनों के बहुत सीमित होने पर राज्यों की केन्द्र पर निर्भरता काफी ज्यादा होना तय है।
देश में कई राज्य सरकारों ने इस मुद्दे को उठाया है, कुछ सांसदों ने भी इस बारे में आवाज उठाई पर केन्द्र सरकार ने अभी तक उस पर गौर कर देश की संसद में इस पर चर्चा नहीं करवाई है। राजस्व के स्रोतों के कम हो जाने की वजह से राज्यों के वश का नहीं है कि वे सामाजिक कल्याण की योजनाओं के मद में अपने राजस्व संग्रह का एक अच्छा हिस्सा आवंटित करें। इसका परिणाम वृद्धावस्था जैसी नॉनकंट्रीब्यूटरी पेंशन योजनाओं में राज्यों की ओर से भी कहने भर की राशि ही आवंटित होना तय है। यही वजह है कि देश में पारिवारिक ढांचे में बदलाव के बाद भी सामाजिक तौर पर आज भी बुढापे का सहारा बच्चे ही माने जाते हैं। आज भी किसी पेंशन, ब्याज या अन्य आय के साधन से हीन वृद्ध लोगों में 77 प्रतिशत के करीब वृद्धजनों को उनकी संतानों का ही सहारा है, पर किसी भी वजह से संतान द्वारा देखभाल के अभाव में बेसहारा वृद्ध लोग कहां जाएंगे इसकी सरकार को कोई चिंता नहीं दिखती।
केन्द्र ने ये उत्तरदायित्व राज्यों के हवाले किया है, जबकि इन बूढे हुए असहाय लोगों ने देश व समाज की सम्पत्ति पैदा करने में योगदान किया पर बुढ़ापे में उनको कोई सहारा नहीं दिखाई देता। मजेदार बात ये है कि केन्द्र सरकार ने इसी वर्ष पेश किए गए बजट में 75 वर्ष से ज्यादा आयु वाले वृद्धजनों को पेंशन या ब्याज पर कोई कर नहीं देने के प्रस्ताव को बढा-चढा कर प्रचारित किया पर जो बड़ा हिस्सा इस श्रेणी में आता ही नहीं, उसके लिए कुछ भी नया नहीं किया।
उत्तराखण्ड