दून विनर/देहरादून
उत्तराखंड का एक मात्र क्षेत्रीय दल उत्तराखंड क्रांति दल अपनी स्थापना के 42 साल पूरे करने के बाद आज राजनीति के अखाड़े में अपने ही राज्य में सियासी जमीन तलाशने को मजबूर है। दल के अध्यक्ष काशी सिंह ऐरी का एलान है कि उक्रांद 70 सीटों पर चुनाव की तैयारी कर रहा है, हालांकि खुद काशी सिंह ऐरी के साथ ही दल के पूर्व अध्यक्ष त्रिवेन्द्र सिंह पंवार और नारायण सिंह जन्तवाल, कार्यकारी अध्यक्ष हरीश पाठक जैसे वरिष्ठ नेताओं के स्वयं चुनाव लडऩे के बजाय चुनाव लड़वाने के बयान पार्टी कार्यकर्ताओं में निराशा पैदा करने वाले हैं।
काशी सिंह ऐरी कहते हैं कि यूकेडी किसी भी राष्ट्रीय दल से चुनाव मिलकर नहीं लड़ेगा, बल्कि क्षेत्रीय राजनैतिक दलों, सामाजिक संगठनों से मिलकर चुनाव लडऩे की रणनीति पर काम चल रहा है। ऐरी कहते हैं कि वर्तमान राजनीति में मुद्दे आगे न होकर धनबल, बाहुबल भारी हो गए हैं जिससे राज्य को काफी नुकसान है। उन्होंने कहा कि उक्रांद का जन्म मुद्दों के लिए लडऩे के लिए हुआ है। आगे भी दल जन मुद्दों के लिए लड़ता रहेगा। किसान आंदोलन पर उनका कहना है कि किसानों ने आंदोलन के जरिये मोदी जैसे अडिय़ल व्यक्ति को झुका दिया।
पिछले चुनावों के परिणाम बताते हैं कि राज्य गठन से लेकर अब तक यूकेडी राज्य में अपना जनाधार खोती चली गई। यही वजह रही कि 2017 के विधानसभा चुनाव में यूकेडी का एक भी प्रत्याशी जीतकर विधानसभा में नहीं पहुंच पाया। 2002 के विधानसभा चुनाव में यूकेडी के चार विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचे और उस वक्त यूकेडी को 5.49 फीसदी वोट मिले थे. लेकिन, 2007 के चुनाव में आंकड़ा 3 विधायकों पर आ गया और वोट प्रतिशत घटकर 3.7 फीसदी के लगभग पहुंच गया। 2012 के विधानसभा चुनाव में यूकेडी का जनाधार गिरकर 1.93 फीसदी पर आ गया और एक ही विधायक यूकेडी का जीत पाया था। साल दर साल गिरे यूकेडी के ग्राफ से लोगों का भरोसा 2017 में पूरी तरह से खत्म हो गया और इन चुनावों में यूकेडी का एक भी प्रत्याशी नहीं जीत पाया और वोट प्रतिशत घटकर 0.7 फीसदी पर पहुंच गया, हालांकि, यूकेडी के नेता इसके पीछे भाजपा और कांग्रेस की रणनीति को मानते हैं कि दोनों दलों ने मिलकर यूकेडी को पूरी तरह से खत्म कर दिया।
राजनैतिक विश्लेषक कहते हैं कि उत्तराखंड में यूकेडी के जनाधार के सिकुड़ते जाने के पीछे यूकेडी के खुद के नेताओं की महत्वाकांक्षा ज्यादा जिम्मेदार है। एनडी तिवारी सरकार के दौरान यूकेडी के नेता, वर्तमान केन्द्रीय अध्यक्ष काशी सिंह ऐरी के बारे में कहा जाता था कि वे विपक्ष में रहने के बाद भी तिवारी को नाराज नहीं करना चाहते थे।
जल विद्युत परियोजनाओं में उत्तराखंड के हक को मारने का मसला हो या गैरसैंण राजधानी के मामले को लटकाए रखने की रणनीति, यूकेडी कभी भी इनके खिलाफ अपनी क्षेत्रीय दल की भूमिका की छाप नहीं छोड़ पाया। इसके बाद 2007 में यूकेडी ने भाजपा को समर्थन दिया और यूकेडी कोटे से दिवाकर भट्ट कैबिनेट मंत्री बने। जब पार्टी ने समर्थन वापसी का निर्णय लिया तो सरकार में कैबिनेट मंत्री दिवाकर भट्ट और नरेन्द्र नगर विधायक ओम गोपाल रावत ने पार्टी छोड़ दी पर वे सरकार को छोडऩे को राजी नहीं हुए। इसका परिणाम यूकेडी में बिखराव के नए दौर के रूप में सामने आया। दल के तत्कालीन अध्यक्ष त्रिवेन्द्र सिंह पंवार ने हरेक असहमत नेता और कार्यकर्ता को बाहर का रास्ता दिखाना शुरू किया जिसके बाद यूकेडी की शक्ति में जबर्दस्त कमी आई और उसकी भरपाई अभी तक नहीं हो पाई है। 2012 के चुनावों में भी यूकेडी के एकमात्र विधायक प्रीतम सिंह पंवार ने कांग्रेस को समर्थन दिया और यूकेडी के कोटे से सरकार में मंत्री रहे, पर वे 2017 के चुनाव में निर्दलीय जीत कर आए और कुछ समय पूर्व उन्होंने भाजपा की सदस्यता ले ली है।
खास बात ये रही कि यूकेडी के जो भी विधायक सरकारों में मंत्री बने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। दिवाकर भट्ट को 2012 में पार्टी से निकाला गया और उसके बाद प्रीतम सिंह पंवार को भी पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। प्रदेश में शायद ही कोई ऐसा इलाका होगा जहां लोग यूकेडी के कुछ नेताओं तक के नाम से परिचित नहीं होंगे। कांग्रेस और भाजपा के बाद प्रदेश में यूकेडी राजनीति में सबसे ज्यादा चर्चा का विषय रही, राज्य आंदोलन में दल की जोरदार भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता। इस बात को भाजपा और कांग्रेस के नेता भी मानते हैं। उत्तराखंड के निर्माण से लेकर राज्य के हर मुद्दों को उठाने में उत्तराखंड क्रांति दल की अहम भूमिका रही है, लेकिन प्रदेश गठन के बाद पार्टी के बड़े नेताओं की निजी महत्वाकांक्षा बढऩे और नई लीडरशिप का अभाव यूकेडी के जनाधार खोने की बड़ी वजह हैं।