दून विनर संवाददाता/देहरादून
सरकार भारतीय रिजर्व बैंक का रिपोर्ट बताती है कि उत्तराखंड सरकार अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए प्रति व्यक्ति 2367 रुपए प्रतिवर्ष खर्च कर रही है। यह आवंटन हिमाचल और उत्तरपूर्वी राज्यों के मुकाबले काफी कम है, हालांकि बड़े भाई उत्तर प्रदेश के साथ ही उत्तराखंड के समान नवंबर 2000 में अस्तित्व में आए झारखंड और छत्तीसगढ़ के प्रतिव्यक्ति स्वास्थ्य पर व्यय से यह बेहतर है। एक वित्त वर्ष में उत्तराखंड की तुलना में हिमाचल प्रदेश 1413 रुपए और जम्मू एवं कश्मीर 790 रुपए प्रति व्यक्ति अधिक व्यय करता है। राज्य सकल घरेलू उत्पाद के साथ तुलना करने पर दिखता है कि उत्तराखंड 1.1 प्रतिशत जबकि हिमाचल 1.8 प्रतिशत और जम्मू एवं कश्मीर तथा उत्तरपूर्वी राज्य 2.9 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च कर रहे हैं। स्वास्थ्य को बजट में प्राथमिकता देने से यह साफ दिख रहा है कि उत्तराखंड के मुकाबले हिमाचल प्रदेश में इन्फेट मोरटेलिटी रेट काफी कम है, हालांकि इसमें गर्भस्थ शिशु की देखभाल से लेकर प्रसवकालीन और उसके तत्काल बाद बेहतर सुविधाओं के मद में आवंटित खर्च और उसके उपयोग वे खास कारक माने जाते हैं, जो नवजात को स्वस्थ रखने में अहम कारक बनते हैं। प्रति 1000 जीवित जन्मे शिशुओं में से एक वर्ष की आयु पूरा करने से पहले काल के गाल में समा जाने वाले शिशुओं की संख्या इन्फेंट मोरटेलिटी रेट होती है। आइएमआर-2017 में उत्तराखंड में आइएमआर 31 है, जबकि हिमाचल में 19, जम्मू एवं कश्मीर में 22 और केरल में काफी कम 7 है। झारखंड में भी इन्फेंट मोरटेलिटी रेट 30 है, जो उत्तराखंड से कम है। अन्डर वेट चिल्ड्रन (2015-16) के मामले में उत्तराखंड में 27 फीसदी अंडर वेट बच्चे पाए गए, जबकि हिमाचल में 21 फीसदी, मणिपुर में 14, मिजोरम में 12, नागालैंड में 17, सिक्किम में 14 त्रिपुरा में 24, जम्मू एवं कश्मीर में 17 और केरल में 16 फीसदी और भारत में 36 फीसदी बच्चे अंडर वेट पाए गए हैं।
प्रति एक लाख जीवित जन्मे बच्चों पर उन्हें जन्म देने वाली कितनी महिलाएं मौत की नींद में सो गई थीं, इसे मेटरनल मोरटेलिटी रेशियो से व्यक्त किया जाता है। पूरे देश का यह औसत 113 है जो काफी अधिक है, वहीं उत्तराखंड की प्रगति भी इस मामले में काफी असंतोषजनक है। उत्तराखंड का मेटरनल मोस्टेलिटि रेशियो (2015-16) 99 है, जबकि झारखंड का 71 और केरल का 43 है। देश में बेहतर स्वास्थ्य सेवा मुहैया करा रहे राज्यों की स्थिति तक पहुंचन के लिए उत्तराखंड को गंभीरता से कदम उठाने की जरूरत है। इसके लिए आवश्यक संसाधनों के साथ-साथ राजनैतिक इच्छाशक्ति को भी हमेशा जरूरत महसूस की जा रही है।
ताजा बजट प्रावधान देखने पर पता चलता है कि उत्तराखंड सरकार के वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के लिए 3439 करोड़ आवंटित किया गया है। पिछले वित्त वर्ष के मुकाबले में 759 करोड़ की वृद्धि की गई है। इस तरह प्रतिव्यक्ति स्वास्थ्य खर्च बढ़ता हुआ दिखाई देता है, परन्तु यह भी देखने वाली बात है कि वित्तीय वर्ष 2020-21 के संशोधित अनुमान (आरई) में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए बजट आवंटन को मूल बजट अनुमान 2680 करोड़ से घटाकर 2378 करोड़ किया गया। यह कमी करीब 300 करोड़ की धनराशि की है जबकि इसी साल कोरोना महामारी ने स्वास्थ्य के मौजूदा ढांचे की पोल खोल कर रख दी और जाहिर है कि डांचागत उअयन के लिए पर्याप्त बजटीय आवंटन आवश्यक है पर फिर भी उसमें कमी हो जाना विरोधाभासी हालत की ओर इशारा करने वाला है। तमाम प्रयासों के बाद भी संस्थानिक प्रसव में बढोतरी आशाजनक नहीं हो पा रही है। भारत सरकार के नीति आयोग की 27 दिगम्बर 2021 को राज्य स्वास्थ्य सूचकार की चौथे संस्करण की जारी रिपोर्ट के अनुसार 19 बड़े राज्यों में संस्थानिक प्रसव में वर्ष 2019-20 में उत्तराखंड का इंडेक्स 69.72 रहा, जबकि हिमाचल का इंडेक्स 70.48 और सबसे बेहतर 92.29 केरल का इंडेक्स रहा है।
राज्यों के हेल्थ केयर पर खर्च की स्थिति ( ये डेटा आरबीआइ की 27.10.2020 की रिपोर्ट के हैं, उसमें से कुछ राज्यों के ही
डेटा यहां उद्धृत किए गए हैं।) कब और कोन बदलेगा हालात?
राज्य गठन के बाद से ही हर सरकार ने दावा किया कि वह खासतौर पर पर्वतीय क्षेत्र में जल्दी ही चिकित्सकों की कमी दूर करने की दिशा में बढ़ रही है, पर आज तक यह दावा जमीन पर उतरता नहीं देखा गया है। डबल इंजिन की वर्तमान प्रदेश सरकार ने लोगों की चिकित्सकों की तैनाती की मांगों पर कार्यवाही का भरोसा दिया जरूर पर यह अभी तक भी परवान चढ़ता नहीं दिखाई दिया। अब चुनावों में फिर वादे हो रहे हैं कि गांव-गांवों में स्वास्थ्य ढांचा विस्तारित होगा पर बिना चिकित्सक, तकनीशियन, नर्सिंग स्टाफ की तैनाती के ये होग कैसे यह कोई बताने को तैयार नहीं है। सत्तारूढ दल वाले भी सूरत बदल देने की बात कर रहे हैं पर पांच साल का हिसाब-किताब नहीं बताते। अब राज्य सरकार के अधीन तीन मेडिकल कॉलेज कार्यरत हैं, जिनमें नए चिकित्सक हो रहे हैं, पर फिर भी सरकार को चिकित्सक नहीं मिल रहे हैं। बाँडधारी चिकित्सक कोर्स पूरा करने के बाद काम करने से कभी काट रहे हैं और कई तो एकदम गायब हो रहे हैं। 17 साल और 60 करोड़ रुपए खर्च करने के बाद भी बॉर्डर डिस्ट्रिक्ट पिथौरागढ़ का बेस हॉस्पिटल योजनानुसार आज तक कार्यरत नहीं है। इसका जवाब कौन देगा।
चाहे उत्तरकाशी का महिला अस्पताल हो, पिथौरागढ़ जिले में एकमात्र महिला हॉस्पिटल हरगोविंद पंत महिला चिकित्सालय, देहरादून जिले का सहिया अस्पताल, चंपावत के बनबसा का अस्पताल हो या रामनगर का पीपीपी मोड का अस्पताल हो अथवा गोपेश्वर का जिला अस्पताल इनमें कभी विशेषज्ञ चिकित्सक, कभी रेडियोलोजिस्ट की तैनाती नहीं रहती तो कभी जांच उपकरण महीनों तक खराब पड़े रहते हैं। सच्चाई ये है कि उत्तराखंड के अधिकतर स. कारी अस्पतालों में रेडियोलोजी की सुविधाएं नहीं है या रेडियोलोजिस्ट की कमी है। अस्पताल में आने वाले मरीजों को महंगे दाम पर निजी चिकित्सा संस्थानों में एमआरआइ, एक्सरे, सिटी स्कैन, मैमोग्राफी, डायलिसिस करना पड़ रहा है। इसे क्या कहा जाए कि देहरादून स्थित दून अस्पताल जो प्रदेश का बेहतरीन सुसज्जित मेडिकल कॉलेज हास्पिटल में गिना जाता है वहां दो साल तक नई एमआरआई मशीन नहीं लग सकी। मरीज 6 से 7 हजार में प्राइवेट पैथोलॉजी में जांच करवाते रहे।
दून अस्पताल में इतने लंबे समय तक एमआरआई मशीन का नहीं लग पाना एक ऐसा उदाहरण है जिसके बारे में खोज किए जाने की जरूरत है कि वास्तव में इसके पीछे कौन शक्तियां मौजूद हैं। आखिर सरकार अपने मेडिकल कॉलेज की साख को बनाए रखने में इतनी लापरवाह कैसे हो सकती है। मानव की नई नस्ल के लिए यह किस तरह की स्वास्थ्य सुविधा का परिदृश्य दिखाई देता है इस पर चुनावों के समय अगर गंभीरता से बहसे नहीं की जाती फिर आगे के पांच साल तो बहस होने से रही। चुनाव के मौके पर जिम्मेदार राजनैतिक दलों को प्रदेश की जनता को बताना चाहिए कि मेडिकल सुविधाओं के अभाव में प्रसव जैसी इमरजेंसी हालत में जच्चा-बच्चा को सुरक्षा के लिए कारगर उपाय क्या किए जाएंगे।