उत्तराखंड: ढोल और ढोलियों का संरक्षण जरूरी..

उत्तराखंड: ढोल और ढोलियों का संरक्षण जरूरी..

* प्राचीनकाल से ढोल उत्तराखंड के पहाड़ की आत्मा से रचा-बसा है। यह प्रत्येक शुभ कार्य संपन्न कराता है। प्रत्येक महीने की संक्रांति को इसकी धुन बजते ही ग्रामीण समझ जाते हैं आज से नया माह शुरू हो जाएगा। ढोल की धुन पर जहां देवताओं का आह्वान किया जाता है, वहीं उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलन में इसी ढोल ने आंदोलन की अगुवाई भी की। बावजूद इसके ढोल और इसे बजाने वाले ढोलियों पर संकट गहराना चिंता की बात है।

मामचन्द शाह/देहरादून। उत्तराखंडी लोक समाज में जितना महत्व ढोल का है, उतना ही महत्व उसे बजाने वाले ढोली का भी है। ऐसे में ढोल के संरक्षण के लिए ढोलियों का संरक्षण की भी उतनी ही आवश्यकता है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि यदि ढोली ही नहीं रहेंगे तो फिर ढोल भी धीरे-धीरे आज की पीढ़ी से दूर होता चला जाएगा। ऐसे में हम अपनी प्राचीन संस्कृति को संजोये रखने में असफल हो सकते हैं। ढोल का महत्व उत्तराखंड के परिवेश, संस्कृति एवं विरासत पर आधारित है। यह परंपरा सदियों से अनवरत चली आ रही। ढोल बजाना न सिर्फ कला है, बल्कि यह एक पारंपरिक ज्ञान और हुनर भी है, जिसके संरक्षण के लिए समय की करवट को पहचानना होगा। अन्यथा अन्य धरोहरों की भांति यह भी अतीत की बात हो जाएगी।

देवभूमि उत्तराखण्ड में ढोल दमाऊं ऐसे जोड़ीदार वाद्य यंत्र हैं, जो उत्तराखण्ड के पहाड़ी समाज की लोककला व संस्कृति को संजोए हुए हैं। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि यह दोनों वाद्य यंद्य के तार सीधे पहाड़ की आत्मा से जुड़े हैं। यहां के ढोल देखकर ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह उत्तराखंड के पहाड़ के ढोल हैं। इन्हें मंगल वाद्य यंत्र नाम से भी जाना जाता है।

कहा यह भी जाता है कि प्राचीन समय में युद्ध के मैदानों में सैनिकों के कुशल नेतृत्व एवं उनमें जोश भरने के लिए सर्वप्रथम ढोल बजाया जाता था। ढोल की गूंज के साथ ही सैनिक दूसरी सेना पर धावा बोल देते थे। बाद में यही चीज सामाजिक जीवन में आ गई और अंततः यह शुभ कार्यों का प्रतीक बन गई। ढोल का सदियों से प्रत्येक समाज में अलग-अलग महत्व है, किंतु देवभूमि उत्तराखंड में इसकी महत्ता और अधिक बढ़ जाती है। कहा जाता है कि ढोल की उत्पत्ति उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जनपद स्थित त्रिजुगीनारायण मंदिर में हुई। मान्यता है कि रुद्रप्रयाग स्थित त्रिजुगीनारायण मंदिर में भगवान शिव-पार्वती का विवाह हुआ था। इसी दौरान यहां ढोल की उत्पत्ति हुई। तब शिव-पार्वती के विवाह के लिए मिट्टी का ढोल निर्मित किया गया।

सर्वप्रथम भगवान विष्णु व ब्रम्हा जी ने इसको बजाना चाहा, किंतु उसमें से ध्वनि उत्पन्न नहीं हुई। इस पर भोलेनाथ ने अपने हाथों में वह ढोल उठाया। कहा जाता है कि महादेव की हाथों की थाप से ढोल से निकली ध्वनि को संपूर्ण पृथ्वी पर सुना गया। तभी से बिना ढोल के कोई भी मंगल कार्य पूर्ण नहीं माना जाता। कुछ समय बाद तांबे के ढोल का निर्माण किया गया। भगवान द्वारा निर्मित होने की वजह से आगे चलकर ढोल देवताओं के आह्वान के लिए उपयोग होने लगा। साथ ही यह समाज का अभिन्न अंग बन गया।

कुछ इतिहासकार मानते हैं कि ढोल पश्चिम एशियाई मूल का है, जिसे 15वीं शताब्दी में भारत में लाया गया। एक मत यह भी है कि 16वीं शताब्दी के आसपास ढोल की शुरुआत गढ़वाल में पहली बार की गई थी।

अनेकों वाद्य यंत्रों में ढोल को भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ढोल के 16 श्रींगार होते हैं। गले में टांगने वाला सफेद धागा ब्रह्मा जी का जनेऊ माना जाता है। ढोल के बीचों बीच की पट्टी शेषनाग के रूप में विराजमान होती है। उसमें एक त्रिभुजाकार आकृति होती है, जो तीनों देवों का रूप है। इसके अलावा ढोल की 11 धमनियां होती है। साथ ही ढोल बजाने वाली लकड़ी थोड़ी मुड़ी होती है। इन्हें भगवान भोलेनाथ के सांपों का रूप माना गया है। उत्तराखंड के सबसे प्राचीन वाद्य यंत्रों में ढोल-दमाऊ शुमार हैं। कहा जाता है कि इनकी धुन गुंजायमान होने भर से ब्रह्मा, विष्णु, महेश व माता पार्वती प्रसन्न हो जाती हैं और जिस घर में कोई भी शुभ कार्य चल रहा होता है, वह मंगलकारी हो जाता है।

एक अन्य दंतकथा के अनुसार ढोल की उत्पत्ति शिवजी के डमरू से हुई। इसकी धुन सर्वप्रथम भोलेनाथ ने माता पार्वती को सुनाया था। कहा जाता है कि जब महेश्वर इसे माता पार्वती को सुना रहे थे, इसी दौरान वहां उनका एक गण भी मौजूद था। वह धुन इतनी मनोहक थी कि उस गण ने उसे अपने अंतर्मन में कंठस्थ कर लिया। तभी से ढोल की परंपरा निरंतर चली आ रही है। ढोल की अलग-अलग धुनों का अर्थ कोई आम जनमानुष नहीं समझ पाता है, किंतु उत्तराखंड में ढोल सागर के कई विद्वान मनीषी आज भी इस परंपरा को संजोये हुए हैं।

ढोलसागर के विद्वानों के अनुसार प्रकृति देवता, मानव और त्यौहारों को समर्पित ढोलसागर में 300 से अधिक ताल हैं। प्राचीनकाल में जब दूरसंचार के साधन नहीं हुआ करते थे, तब ढोल यह काम बड़ी आसानी से किया करते थे। ढोली द्वारा ढोल की अलग-अलग ताल बजाकर दूर दूसरे गांव में मौजूद ढोली न सिर्फ ढोल की धुन से उत्पन्न हुए संदेश को गांव में प्रसार करते थे, बल्कि वहां से उसका जवाब भी ढोल की धुन से ही वापस भेज देते थे।

के विद्वजनों के अनुसार ढोल दमाऊं ढोल सागर के र के माध्यम से कई प्रकार की विशेष तालों को बजाया जाता हैं। इन्हीं भिन्न-भिन्न तालों के समूह को ढोल सागर कहा जाता है। ढोल सागर में लगभग 1200 श्लोकों का वर्णन है। इन तालों के माध्यम से वार्तालाप व विशेष संदेश का आदान-प्रदान किया जाता है। अलग समय पर अलग-अलग ताल बजायी जाती है, जिसके माध्यम से इस बात का पता चलता है की कौन-सा संस्कार या अवसर है या फिर क्या संदेश है।

यही कारण है कि ढोल दमाऊं उत्तराखंड के पहाड़ी समाज की आत्मा में रचे-बसे रहे हैं। जन्म के अवसर पर, घर से लेकर जंगल तक किसी भी संस्कार को संपन्न कराने के साथ ही सामाजिक गतिविधियां भी ढोल के बिना संपन्न नहीं हो पाते हैं। इसका उदाहरण आज भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि सामाजिक गतिविधियों के अलावा जब कोई राजनीति से जुड़ा व्यक्ति अपनी किसी जनसभा या रैली में जाता है तो उनके आगे-आगे ढोली ही ढोल बजाते हुए चलते हैं। यानि कि रैली का नेतृत्व ढोल ही करता है।

ढोल सागर की अलग-अलग कुछ तालें

1- मंदिरों में पूजा अनुष्ठान के समय में भगवती के आह्वान के पश्चात नृत्य के लिए बजायी जाने वाली ताल धुँएल ताल कहलाती है।

2-धुँएल ताल भगवती मैया के दैत्य संहार के समय बजने वाली ताल है।

3- शादी-विवाह आदि संस्कारों में दूल्हा या दुल्हन को हल्दी लगाते समय बजने वाली ताल बधाई ताल कही जाती है।

4-बारात प्रस्थान के समय बजने वाली ताल रहमानी ताल होती है।

5- किसी नदी या नाले को पार करते समय जाने वाली ताल को गढ़चल ताल कहते हैं।

6- जब पांडव नृत्य में ढोल दमाऊ वादन होता है तो इसे पंडौ ताल कहते हैं।

कुल मिलाकर इस प्राचीन धरोहर के संरक्षण के लिए ढोलियों का संरक्षण अति आवश्यक है। ढोली रहेंगे तो ढोल के बोल भी सदियों तक गुंजायमान होते रहेंगे।

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