कब रुकेंगी हिरासत में मौतें, देश में वर्ष 2001 से 2020 के बीच पुलिस हिरासत में 1888 मौतें 

कब रुकेंगी हिरासत में मौतें, देश में वर्ष 2001 से 2020 के बीच पुलिस हिरासत में 1888 मौतें 

दून विनर संवाददाता/देहरादून।
पुलिस बर्बरता और हिरासत में की जाने वाली हिंसा के मामले में भारत का रिकॉर्ड काफी खराब है। वर्ष 2020 में 76 व्यक्तियों और वर्ष 2019 में 85 व्यक्तियों की पुलिस हिरासत में मौत हुई। देश में वर्ष 2001 से 2020 के बीच पुलिस हिरासत में 1888 मौतें हुईं, जबकि इन मामलों के लिए केवल 26 पुलिसकर्मियों को दोषी ठहराया गया।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2001 और 2020 के बीच हिरासत में मौत के मामलों में पुलिसकर्मियों के खिलाफ  893 मामले दर्ज किए गए और 358 पुलिसकर्मियों के विरुद्ध आरोप पत्र दाखिल किए गए। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडीशा को छोड़कर पूरे देश में और कहीं भी इस तरह की मौतों के लिए किसी भी पुलिसकर्मी को दोषी नहीं ठहराया गया था। आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार वर्ष 2020 में गुजरात में 15 व्यक्तियों, आन्ध्र प्रदेश में 8 व्यक्तियों, राजस्थान, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु प्रत्येक में 6-6 व्यक्तियों, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र हरेक में 5-5 व्यक्तियों, हरियाणा में 3 व्यक्तियों, ओडीशा, पंजाब, छत्तीसगढ, झारखंड, पश्चिम बंगाल हरेक में 2-2 व्यक्तियों और आसाम, बिहार, मणिपुर, हिमाचल प्रदेश, तेलांगना, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश प्रत्येक में 1-1 व्यक्ति की पुलिस हिरासत में मृत्यु हुई।
एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2019 में तमिलनाडु में 11 व्यक्तियों ने पुलिस हिरासत में दम तोड़ा। गुजरात और महाराष्ट्र दोनों राज्यों में 10-10 व्यक्तियों की हिरासत में मौत दर्ज की गई। रिकॉर्ड के अनुसार वर्ष 2019 में ही मध्य प्रदेश में 8, राजस्थान में 7, पंजाब और तेलांगना प्रत्येक में 6-6, छत्तीसगढ में 5 व्यक्तियों, ओडीशा व आन्ध्र प्रदेश हरेक में 4-4 व्यक्तियों, हिमाचल प्रदेश में 3 व्यक्तियों और आसाम, बिहार, उत्तराखंड, झारखंड, केरल, कर्नाटक, मणिपुर, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, एवं केन्द्र शासित प्रदेश दिल्ली तथा अंडमान और निकोबार द्वीप हरेक में 1-1 व्यक्ति की हिरासत में मौत हुई।
इस बारे में यह हकीकत काफी चिंता पैदा करने वाली है कि जाँच के वैज्ञानिक तरीके अपनाने से लेकर पुलिसकर्मियों को प्रशिक्षण देने तक के काफी प्रयासों के बावजूद भारत में हिरासत में मौतें नहीं रुक रही हैं।
गौरतलब है कि हिरासत में होने वाली मौतें या ‘कस्टडियल डेथÓ व्यक्तियों की वे मौतें हैं, जो पुलिस हिरासत में अथवा मुकदमे की सुनवाई के दौरान न्यायिक हिरासत में अथवा कारावास में दंड भोगने के दौरान होती हैं। यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि पुलिस जब अपनी पूछताछ के दौरान प्राप्त निष्कर्षों से संतुष्ट नहीं होती तो कई बार यातना और हिंसा का भी सहारा लेती है, जिससे संदिग्ध व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है।
हालांकि संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जा सकता है। अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण) के तहत यातना से संरक्षण एक मूल अधिकार है, परन्तु हिरासत में व्यावहारिक तौर पर यातना को प्रभावी ढंग से तब तक नहीं रोका जा सकता, जब तक कि पुलिस तंत्र का वरिष्ठ स्तर ऐसे मुद्दों की गंभीरता का अनुमान नहीं लगाएगा और वर्तमान व्यवहारों में बदलाव नहीं लाएगा।
विधि के जानकारों के अनुसार भारत में अत्याचार विरोधी कानून मौजूद नहीं है, न ही हिरासत में हिंसा को अपराध घोषित किया गया है, जबकि भारत वर्ष 1997 में अत्याचार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन पर हस्ताक्षर कर चुका था, लेकिन अभी तक इसकी पुष्टि नहीं की गई है।
कानून के जानकारों का कहना है कि हस्ताक्षर केवल संधि में निर्धारित दायित्वों की पूर्ति के प्रति देश की मंशा को इंगित करता है, प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए पहले पुष्टि या समर्थन करना होगा उसके बाद ही कानूनों और तंत्रों के निर्माण का मार्ग प्रशस्त होगा। देश की सरकारें वांछित कारगर सुधार लाने में भी सफल नहीं हैं। इसके साथ ही न्यायालयों में अपनाई जाने वाली लंबी, महंगी औपचारिक प्रक्रियाएं गरीबों और कमजोरों को हतोत्साहित भी करती हैं।
कुल मिलाकर पुलिस हिरासत में मौतों को समाप्त करने के लिए देश के नीति निर्माताओं को कानूनी प्रावधानों, प्रौद्योगिकी, जवाबदेही, प्रशिक्षण और सामुदायिक संबंधों, इन सभी को शामिल करते हुए एक बहुआयामी रणनीति तैयार करने की जरूरत है ताकि भारत विधि के शासन की मिसाल भी विश्व में पेश कर सके।
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